Review: पुराने ही ढर्रों पर बानी है सुशांत और श्रद्धा की फिल्म छिछोरे

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शशी कुमार केसवानी
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सुशांत सिंह राजपूत, श्रद्धा कपूर और वरुण शर्मा की ‘छिछोरे’ को देखते समय जो बात सबसे पहले जेहन में आती है, वह है- 1992 की ‘जो जीता वही सिकंदर’ और 2009 की ‘3 ईडियट्स’. ‘छिछोरे’ इन्हीं दो फिल्मों का कॉकटेल जैसी लगती है. ‘छिछोरे’ की कहानी यारी-दोस्ती के साथ ही लूजर न बनने की मानसिकता से दूर रहने का संदेश देती है. फिल्म में कॉलेज के दिन हैं, यारी-दोस्ती का मजा है, हॉस्टेल लाइफ है और खेल में सबकुछ दांव पर लगाना है. इस तरह दंगल डायरेक्टर ने संदेश के साथ ही हल्की-फुल्की फिल्म देने की कोशिश की है, लेकिन बहुत ही ज्यादा प्रेडिक्टेबल होने की वजह से फिल्म कुछ नयापन लेकर नहीं आती है. यही बात पूरा मजा खराब कर देती है.

‘छिछोरे’ की कहानी सुशांत सिंह राजपूत और श्रद्धा कपूर के बेटे से शुरू होती है, वह हॉस्पिटल में है और लूजर कहलाने के डर की वजह से उसका हाल ऐसा हुआ है. फिर सुशांत सिंह बेटे को ठीक करने के लिए अपनी लूजर टीम की कहानी सुनाते हैं. जिसमें सुशांत अपने दोस्त वरुण शर्मा, ताहिर राज भसीन, तुषार पांडेय और नवीन पोलीशेट्टी की कहानी सुनाते हैं. किस तरह सुशांत कॉलेज में आते हैं, और लूजर्स के हॉस्टेल में जगह मिलती है. शुरू में सुशांत हॉस्टेल छोड़ना चाहते हैं, लेकिन फिर इन्हीं लूजर्स के साथ उनका मन लग जाता है. फिर आता है हॉस्टेल में चैंपियनशिप का मौका, जिसे हारने की वजह से ही उन्हें लूजर कहा जाता है. सुशांत और उनके दोस्त इस कहानी के साथ बेटे को ठीक करने की कोशिश करते हैं. इस तरह नितेश तिवारी ने ‘छिछोरे’ को एक इंस्पिरेशनल फिल्म बनाने की कोशिश की है, और इसमें यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि बच्चों को सिर्फ जीतने ही नहीं, अगर वह हारते हैं तो उसके बाद क्या करना चाहिए वह भी समझाना चाहिए.

‘छिछोरे’ फिल्म में एक्टिंग के मोर्चे पर मम्मी का किरदार निभा रहे तुषार पांडे, सेक्सा बने वरुण शर्मा और डेरेक के किरदार में ताहिर राज भसीन जमे हैं. वरुण शर्मा ने अपने बोल्ड जोक्स के साथ खूब हंसाने की कोशिश की है, पर उतने सफल नहीं हो पाए. सुशांत सिंह राजपूत ने अपने कैरेक्टर को ठीक-ठीक ढंग से निभाया है. श्रद्धा कपूर के लिए फिल्म में बहुत ज्यादा कुछ करने को है नहीं.

नितेश तिवारी की ‘छिछोरे’ में कुछ भी नया देखने को नहीं मिला है. नितेश तिवारी ने आजमाए हुए फॉर्मूले पर ही फिल्म गढ़ने की कोशिश की है जो बहुत ही ज्यादा प्रेडिक्टेबल है. हालांकि सॉन्ग ठूंसे नहीं गए हैं. फिल्म में संदेश देने की कोशिश है, यह मैसेज यूथ को लेकर है. लेकिन ‘दंगल’ के बाद उनसे उम्मीदें बहुत ज्यादा थीं.

नितेश तिवारी को फिल्म छिछोरे बनाने से पहले एक बार भोपाल जरूर घूमना चाहिए था। तभी उन्हें छिछोरे का मतलब समझ आता। छिछोरे शब्द का चलन भोपाल से ही शुरू हुआ था। इसके पीछे बहुत सारी वजह भी है। क्यूंकि असली छिछोरे भोपाल में पाए भी जाते हैं। हालाँकि फिल्म में उतनी तो छिछोराइ है नहीं। कहानी से नाम भी कम ही मेल खाता है। हालाँकि इस पर बहुत शानदार फिल्म बनाई जा सकती थी। कुल मिलाकर फिल्म पुराने ही ढर्रों पर फिल्माई गई है। 

movie rating – 2/5