सपाक्स आंदोलन : क्या सरसों के फूल खिलेंगे

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पंकज शुक्ला

मध्यप्रदेश में 2018 के अंत में विधानसभा चुनाव होना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की भोपाल यात्रा के साथ भाजपा तो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के मप्र दौरों के साथ कांग्रेस की चुनाव अभियान गति थर्ड गियर में आ चुकी है। ऐसे में पहले उज्जैन और फिर अब भोपाल में सपाक्स समर्थकों का जमावड़ा क्या संकेत देता है मप्र के चुनावी माहौल और परिणामों में रूचि रखने वाले लोगों के दिलों-दिमाग में इन दिनों यही सवाल उमड़-घुमड़ रहा है।
Sapaks Movement: Will the flowers of mustard grow
कर्मचारियों की संस्था से सवर्ण समाज के संगठन का रूप धर चुका सपाक्स यानि सामान्य एवं पिछड़ावर्ग कर्मचारी अधिकारियों का संगठन अब राजनीति के मैदान में है। उसका लक्ष्य है कि विधानसभा चुनाव में अपनी ताकत दिखाई जाए, सवर्ण वोटों के सहारे अपने प्रतिनिधि जिताएं जाएं और आरक्षण मुक्त देश बनाया जाए।

सवाल यह भी है कि क्या सपाक्स की इस लड़ाई में सफलता की सरसों के फूल खिलेंगे सारे आकलनों के पहले यह जान लेना जरूरी है कि सपाक्स विशुद्ध कर्मचारी का संगठन था जो अनुसूचित जाति-जनजाति अधिकारी-कर्मचारी संगठन यानी अजाक्स के खिलाफ तैयार किया गया था। इसका एकमात्र उद्देश्य सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति में आरक्षण का विरोध करते हुए शिवराज सिंह सरकार की याचिका का सामना करना था। इससे कुछ आगे यह अनारक्षित वर्ग के कर्मचारियों के हितों का संरक्षण करने का लक्ष्य लिए हुए था।

गौरतलब है कि मप्र में वर्ष 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने का कानून बनाया था। पदोन्नति में आरक्षण का लाभ अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग को ही दिया जाता है। पिछड़ा वर्ग को पदोन्नति में आरक्षण नहीं दिया जाता है। राज्य में पिछड़ा वर्ग को नौकरियों में चौदह प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। अनुसूचित जाति वर्ग के लिए बीस एवं जनजाति वर्ग के लिए सोलह प्रतिशत पद सरकारी नौकरियों में आरक्षित हैं।

लगभग दो साल पहले मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने के लिए बनाए गए कानून एवं नियमों को असंवैधानिक मानते हुए निरस्त कर दिया था। इस निर्णय के खिलाफ प्रदेश सरकार के सुप्रीम कोर्ट में चले जाने से गैर आरक्षित वर्ग के सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारी नाराज हैं। सपाक्स संगठन इसी नाराजगी की उपज है। यही कारण है कि संगठन का विस्तार कर्मचारियों के मध्य अधिक है। इस संगठन को जमीनी स्तर पर सामान्य वर्ग का कोई खास समर्थन नहीं मिला। लेकिन अजा-जजा अत्याचार कानून में बदलाव के बाद आमजन भी सपाक्स से जुड़ गया और पदोन्नति में आरक्षण खत्म करने की मांग आरक्षण खत्म करने की लड़ाई बन गई।

सवर्ण एट्रोसिटी एक्ट और आरक्षण में समानता के मामले पर मोटे तौर सपाक्स के साथ है मगर अभी सपाक्स के राजनीतिक सूत्र तलाशे जा रहे हैं। तलाशा जा रहा है कि इस राजनीतिक मोर्चें की सुरंगों में आखिर बारूद किस दल का भरा है। सपाक्स के मैदान में होने न होने से किस दल का लाभ और किसे नुकसान है। सवर्ण समाज आमतौर पर भाजपा का ही वोट बैंक माना जाता रहा है। यही कारण है कि इस वर्ष सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने अजा-जजा अत्याचार अधिनियम प्रस्तुत किया तब भाजपा नेतृत्व ने सवर्णों की चिंता नहीं की। भाजपा खेमा मानता रहा कि सवर्ण तो जहाज के पंछी हैं जो बार-बार भाजपा के जहाज पर ही आएंगे।

सपाक्स समाज के संरक्षक रिटायर्ड आईएएएस अधिकारी हीरालाल त्रिवेदी का कहना है कि जहां आरक्षित समाज के सांसद, विधायक और जनप्रतिनिधि अपने समाज के हितों के लिए किसी भी हद तक जाते है, वहीं हमारे समाज के जनप्रतिनिधि दब्बू और डरपोक बने हुए है। ऐसे जनप्रतिनिधियों को जाग्रत करने के उन्हें सबक सीखाने की भी जरूरत है।

मगर चुनाव मैदान में उतरा सपाक्स सत्ता के विरोध के मतों का ध्रुवीकरण होने से रोकेगा। कांग्रेस की कोशिश है कि किसी भी सूरत सरकार विरोधी वोटों का विभाजन न हो। सपाक्स के उम्मीदवार यदि सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ते हैं तो वोटों का विभाजन भी होगा। सत्ता विरोधी वोटों के विभाजन से भाजपा को लाभ होना तय माना जा रहा है। यही वजह हैं कि सपाक्स के राजनीति में उतरने को सत्ता पक्ष के रणनीतिकारों की सफलता कही जा रही है। विभाजित विपक्षी मत सत्ता पक्ष को राहत ही देगा।

तो क्या सपाक्स सच में भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित नहीं होगा इस आंदोलन को फंडिंग कहां से हो रही है और चुनाव में सपाक्स कुछ सीटें जीतने में कामयाब हो भी गया तो क्या यह आरक्षण पर छिड़ी अपनी लड़ाई जीत सकेगा यही वे सवाल हैं जो आज सपाक्स के लक्ष्य से बड़े हो गए हैं। इतिहास चुनाव के दौरान ऐसे अनेक आंदोलन उठ खड़े होने और चुनाव उपरांत इन संगठनों के बुलबुलों की तरह शांत हो जाने का गवाह रहा है। तो क्या सपाक्स का हश्र भी ऐसा ही होगा

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है