आईपीसी की धारा 497: सुप्रीम कोर्ट ने डेढ़ सदी पुराने कानून को मनमाना और महिला विरोधी बताया

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दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को विवाहेतर संबंधों (अडल्टरी) को अपराध मानने वाले आईपीसी के सेक्शन 497 को खत्म करने के संकेत दिए हैं। इस कानून के मुताबिक किसी विवाहित पुरुष के शादीशुदा महिला से उसके पति के मर्जी के बिना शारीरिक संबंध बनाने को अपराध की श्रेणी में रख सजा का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट आईपीसी की इस धारा को असंवैधानिक मानने की ओर बढ़ता दिख रहा है। हालांकि इसके बावजूद अडल्टरी पुरुषों और महिलाओं के लिए तलाक लेने का वैध आधार बनी रहेगी।
Section 497 of IPC: Supreme Court decides one-and-a-half-century law to be arbitrary and anti-woman
पीआईएल दाखिल करने वाले याचिकाकर्ता शाइना जोसफ ने आईपीसी की इस धारा को भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक बताते हुए इसकी वैधता को चुनौती दी है। उन्होंने तर्क दिया है कि यह कानून केवल पुरुषों को सजा देता जबकि सहमति से बनाए गए इस संबंध के अपराध में महिलाएं भी बराबर की भागीदार होती हैं। इस कानून के मुताबिक दोषी पुरुष को पांच साल तक की सजा हो सकती है, जबकि महिला पर उकसाने तक का मामला दर्ज नहीं हो सकता।

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदू मल्होत्रा की बेंच ने कहा कि कानून की यह धारा महिलाओं के लिए और भी भेदभावपूर्व दिखती है। बेंच ने कहा कि भले ही इस कानून के तहत महिला को विवाहेतर संबंध का दोषी नहीं माना गया हो, लेकिन यह महिलाओं को उसके पति की संपत्ति के रूप में देखता है।

जस्टिस नरीमन ने कहा कि पति की सहमति की जरूरत महिलाओं को पति की संपत्ति मानने जैसी है। उन्होंने कहा, ‘यह प्रॉविजन स्पष्टत: एकपक्षीय है। महिलाओं को पतियों की संपत्ति मानकर यह कानून उनकी प्रतिष्ठा का उल्लंघन करता है जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीवन जीने के अधिकार का हिस्सा है।’

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने इसमें आगे जोड़ते हुए कहा कि यह बेहद पुराना प्रावधान है। उन्होंने कहा, ‘सजा से बचाते हुए महिलाओं के पक्ष में दिखने वाला यह कानून दरअसल ऐंटी-विमिन है, क्योंकि यह उन्हें पतियों की संपत्ति मानता है। उन्हें ये कॉन्सेप्ट कहां से मिला कि एक औरत को दूसरे शादीशुदा पुरुष से शारीरिक संबंध बनाने के लिए अपने पति की सहमति की जरूरत है?’

अपना पक्ष रखते हुए सीनियर ऐडवोकेट मीनाक्षी अरोड़ा और वकील कलीस्वरम राज व सुनील फर्नांडीस ने धारा 497 पर केंद्र के तर्कों पर जिरह किया। केंद्र ने धारा 497 को शादी संस्थान की पवित्रता से जोड़ते हुए इसका बचाव किया था। वकीलों ने तर्क दिया कि यह कानून इस संबंध में कोई मदद नहीं करता क्योंकि यह किसी शादीशुदा पुरुष को गैर शादीशुदा महिला, विधवा या ट्रांस जेंडर से शारीरिक संबंध बनाने से नहीं रोकता।

एक अमेरिकी फैसले का हवाला देते हुए उन्होंने तर्क दिया कि सेक्शन 497 पुरुषों और महिलाओं की यौन स्वायत्तता और स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाता है। हालांकि चीफ जस्टिस ने एक तरह से चेताते हुए कहा कि अगर हम सेक्शन 497 को असंवैधानिक घोषित करते हैं तो यह खत्म हो जाएगा, लेकिन हमारे देश में शादी की पवित्रता अमेरिका से काफी अलग है। चीफ जस्टिस ने कहा कि सेक्शन 497 को हटाने का यह मतलब नहीं होंगा कि सुप्रीम कोर्ट ने शादीशुदा पुरुष और महिला को मनमाने व्यवहार का लाइसेंस दे दिया। इसे ऐसे भी नहीं समझा जाएगा कि शादी के बाहर मनमाने संबंध बनाने का अधिकार मिल गया।

चीफ जस्टिस ने कहा कि जेंडर न्यूट्रल होकर अडल्टरी तलाक के लिए वैध आधार बनी रहेगी। ऐडवोकेट मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि जिनके काम के आधार पर 1860 में आईपीसी की रूपरेखा बनी उस लॉर्ड मैकाले के आॅरिजनल ड्राफ्ट में भी अडल्टरी को अपराध मानने की अनुशंसा नहीं थी। अरोड़ा के मुताबिक मैकाले ने इसे केवल नैतिक रूप से गलत माना था। सीनियर ऐडवोकेट के मुताबिक इसके बावजूद महिलाओं को पतियों की संपत्ति मान जाने की परंपरा ने कानून का रूप ले लिया।