शिवराज बनाम कांग्रेस…, ट्रांसफर आफ पावर की जंग शुरू

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बाखबर
राघवेंद्र सिंह

मध्यप्रदेश में मौसम बारिश का चल रहा है लेकिन राजनैतिक हलकों में जेठ (मई) जैसी गर्माहट है। भले ही राजनेता आग उगलते न दिखाई दे रहे हों लेकिन उनके हावभाव बताते हैैं कि चुनाव में आने वाले दिन बहुत कड़वाहट और कर्कशता के होंगे। इसे सिर्फ एक घटना से समझा जा सकता है मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के लिए देशद्रोही की श्रेणी में होने तक की बात कह कर अषाढ़ के मौसम में भले ही नदी नालों में बाढ़ नहीं आई हो लेकिन उनके इस बयान से दिग्विजय सिंह उबाल पर हैैं। उन्होंने 26 जुलाई को भोपाल के एक थाने में गिरफ्तारी देने का एलान कर दिया है। यह राजनैतिक शिगूफा या सुतंगा हो सकता है लेकिन बयानबाजी में गिरावट का भी एक नमूना माना जा सकता है।
Shivraj vs Congress …, the battle of transfer of power begins
अबके चुनाव ऐसा लगता है दिसंबर तक आते आते पार्टी नेताओं कार्यकर्ताओं के लिए तो मुश्किल भरे होंगे ही मतदाताओं के लिए भी आग के दरिया और डूब कर जाने जैसा मामला होगा। कह सकते हैैं कि इस साल के चुनावी पूतों के पाव पालने में अच्छे नजर नहीं आ रहे हैैं। फिल वक्त तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की जनआशीर्वाद यात्रा कांग्र्रेस को थोड़ा चिंता में और भाजपा को उत्साह की लहरों में डूबती उतराती दिख रही है।

कांग्र्रेस को छोड़ भी दे तो भाजपा में शिवराज सिंह के विरोधी भी यह मान रहे हैैं कि गांव और कस्बों में अभी उनका ही जादू दिख रहा है। शायद इसीलिए पार्टी के लिए वे मजबूरी बने हुए हैैं। वरना भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तो कह चुके थे इस बार कोई चेहरा नहीं होगा बल्कि संगठन को आगे रखकर चुनाव लड़ा जाएगा। इसके बाद जन आशीर्वाद यात्रा से शिवराज स्वत: ही चेहरा बन गए और संगठन बिना कुछ कहे पीछे लुढ़क गया।

हालत यह है कि संगठन महामंत्री उनकी यात्रा में जनता के बीच जाकर मोबाइल से रिकार्डिंग कर रहे हैैं। इसका क्या हेतु है यह तो वह ही बताएंगे मगर इसे गंभीरता के बजाए लोग हास्यास्पद ढंग से ले रहे हैैं कि एक संगठन महामंत्री क्या जनता की नब्ज पकडऩे के लिए यह सब करेगा। खैर नया जमाना है और नए नुस्खे, नए इवेंट मैनेजर जो कराएं सो कम है।

हमने शुरूआत की थी चुनाव की जंग ट्रांसफर आफ पावर होती है। लोकतंत्र में कितना समर्थन पाया और कितना माल कमाया इसका सोशल आडिट मतदान में हो जाता है। 2003 से लेकर अब तक बीजेपी भाग्यशाली है कि उसके नेताओं ने समर्थन भी पाया और मलाई मारने के बाद भी सत्ता में वापसी करते रहे। इस बार थोड़ी सी दिक्कत महसूस हो रही है लेकिन किसानों के खाते में पैसे जाना, गरीब गुरबे का चेहरा बने शिवराज सिंह का देसी अंदाज में बातें करना और जिस इलाके में गए वहीं की समस्याओं के निदान की गारंटी देना भाजपा को कांग्र्रेस से आगे दिखा रहा है। नौकरशाही के नाफरमानियां तो जस की तस है मगर मुख्यमंत्री का खजाना खोलकर दिल की बातें करना पार्टी के ग्र्राफ में इजाफा कर रहा है। किसानों की नाराजगी और युवाओं का समर्थन हासिल करने में सफलता मिली तो पावर भाजपा के पास ही रह सकती है।

दूसरी तरफ कांग्र्रेस में कमलनाथ ने पार्टी के सभी दिग्गजों को अपने झंडे तले इकट्ठा करने में कामयाबी हासिल कर ली है मगर दिक्कत आ रही है सबके बीच में समन्वय की। कमलनाथ की अपनी टीम में कोई युवाओं में ऐसा सर्व स्वीकार और सर्वशक्तिशाली लीडर नहीं है जो अपने वरिष्ठों की टीम के साथ तालमेल बैठा सके। यहां सारे काम कमलनाथ को ही करने है। समय कम है और इसमें कमलनाथ कुछ खास करने के लिये वक्त नहीं निकाल पा रहे है।

प्रदेश कांग्र्रेस कार्यालय में अनुभवी नेता तो है मगर नई पीढ़ी के साथ उनका समन्वय नहीं है। कांग्र्रेस की दिक्कत यहीं से शुरू होती है। कुल मिलाकर सारे बढ़े खिलाड़ी जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया, सत्यव्रत चतुर्वेदी, अरुण यादव जैसे तमाम और भी नेताओं की सूची है यह सब साथ तो है मगर कौन कहां से और कैसे पार्टी को आगे बढ़ाएगा यह तय नहीं होने से भ्रम, असमंजस, अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है। अगर पार्टी इससे नहीं उबरी तो युवा कार्यकर्ताओं में एक किस्म की निराशा होगी और वे भाजपा की तरफ झुकें तो किसी को हैरत नहीं होगी।

पार्टी के अंदरखाने से जो खबरें आ रही हैैं उसमें कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच पर्याप्त तालमेल का नहीं होना भी चिंता का विषय है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह प्रदेश भर में यात्रा कर कार्यकर्ताओं को सक्रिय कर रहे है। इसमें सक्रियता का लाभ मिल रहा है तो गुटबाजी पनपने की खबरें भी आ रही है। हालांकि कांग्र्रेस में गुटबाजी होने का मतलब है कि वह ताकतवर हो रही है। इसका सही उपयोग हुआ तो सत्ता और अनदेखी हुई तो फिर विपक्ष जिंदाबाद।

कमलनाथ की भी कम दिक्कतें नहीं है। उन्हें अपने भरोसे का कोई युवा और वरिष्ठता लिए हुए ऐसा लीडर नहीं मिल रहा है जो सबके साथ मिल कर काम कर पाए। चंद्रप्रभाष शेखर को कार्यालय की कमान सौैंपी तो उम्र उनके आड़े आ रही है। मीडिया का जिम्मा मानक अग्र्रवाल को सौप दिया गया है। लेकिन के. के. मिश्रा को कोई काम नहीं देना भी प्रदेश नेतृत्व की उपयोग करने वाली क्षमता पर सवाल खड़े करता है। बारिश का मौसम है कांग्र्रेस के लिए यह समय गरम-गरम पकौड़े खाने और चाय पीने का तो नहीं हो सकता और आलाह गाने का भी नहीं।

वैसे ही कांग्र्रेस की गाड़ी सक्रियता के मामले में निर्धारित समय से देरी से चल रही है। ऐसे में कमलनाथ, सिंधिया, दिग्विजय सिंह की जुगलबंदी में नौजवान लीडरों की दूसरी पंक्ति को सक्रिय नहीं किया तो बाजी फिर हाथ से फिसलती लग सकती है।  महाकवि स्व गोपालदास नीरज की पंक्तियां सियासी पार्टियों समेत उन सबके लिए मुफीद हैं जो दो दो नही बल्कि हजारों हाथों से धन और विधायक-सांसद बटोरने में लगे हैं…

” जितना कम सामान रहेगा , सफर उतना आसान रहेगा … जितनी गठरी भारी होगी , उतना तू हैरान रहेगा…”
जितने कम विधायक- सांसद , पदों के बंटवारे में उतनी कम मारामारी। ऐसे ही जरूरत से ज्यादा धन सम्पति अपने लिए कम दूसरों के लिए ज्यादा होती है…. अबेरना मुश्किल हो जाता है…

ट्रांसफर आर डिश…
बहरहाल सरकार किसी भी बने भारतीय लोकतंत्र के मामले में मशहूर साहित्यकार हरिशंकर परसाई की चंद पंक्तियां बहुत सटीक है जो आज भी सच लगता है। उन्होंने कहा-इंडिया इज ए ब्यूटीफुल कंट्री। और छुरी-कांटे से इंडिया को खाने लगे, जब आधा खा चुके तब देशी खाने वालों ने कहा- अगर इंडिया इतना खूबसूरत है तो बाकी हमें खा लेने दो। यह बातचीत 1947 में हुई थी। हम लोगों ने कहा- अहिंसक क्रांति हो गई। बाहर वालों ने कहा- यह ट्रांसफर और पावर है। सत्ता का हस्तांतरण। मगर सच पूछो तो यह ट्रांसफर आफ डिश हुआ। थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई। वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे। ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते है।

लेखक IND24 समूह के प्रबंध संपादक हैं।