19 नवंबर की मीटिंग से मिला संकेत, आरबीआई नहीं सरकार है असली ‘बॉस’!

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नई दिल्ली। सोमवार को रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया (आरबीआई) के बोर्ड की हुई मैराथन मीटिंग के नतीजों की व्याख्या जारी है कि आखिर इससे सरकार को क्या मिला और आरबीआई ने क्या पाया। हालांकि, कमजोर बैंकों एवं छोटे कारोबारियों को राहत दिए जाने जैसे मसलों पर शोर-शराबे के इतर दीर्घावधि के परिणाम के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण बात है यह है कि ऐतिहासिक रूप से इस नाजुक रिश्ते का शक्ति-संतुलन मिंट स्ट्रीट से नॉर्थ ब्लॉक की ओर जाने का संकेत मिला है। टाइम्स आॅफ इंडिया ने कुछ पूर्व आरबीआई गवर्नरों, नौकरशाहों, नीति-निमार्ताओं और राजनेताओं से बातचीत की, जिससे पता चलता है कि केंद्रीय बैंक सरकार के हाथों अपनी जमीन खो चुका है।
Signs from meeting on 19th November, RBI is not real government ‘boss’!
आरबीआई की स्वायत्तता से समझौता होगा?
मीटिंग से निकले साक्ष्यों से जान पड़ता है कि केंद्रीय बैंक को अब से बोर्ड की चिंताओं एवं उसके सुझावों के प्रति ज्यादा तवज्जो देनी होगी। सरकार की तरफ से नामित दो डायरेक्टरों समेत मौजूदा कुल 13 बाहरी निदेशकों में नियामकीय फैसलों (रेग्युलेटरी डिसिजन्स) को लेकर गवर्नर और उनके मौजूदा 4 डेप्युटीज पर हावी होने की लालसा दिखी। क्या इसका मतलब यह लगाया जाए कि आरबीआई अब अपने बोर्ड के दिशा-निदेर्शों के मुताबिक संचालित होगा? चूंकि बोर्ड के बाहरी सदस्य सरकार द्वारा चुने गए होते हैं, इस वजह से उनका सरकार की आर्थिक-राजनीतिक चिंताओं के प्रति संवेदनशील होना स्वाभाविक है। ऐसे में क्या आरबीआई की स्वायत्तता से समझौता नहीं होगा?

निर्णय प्रक्रिया में मौलिक परिवर्तन: पूर्व आरबीआई गवर्नर
टाइम्स आॅफ इंडिया ने कुछ पूर्व आरबीआई गवर्नरों, नौकरशाहों, नीति-निमार्ताओं और राजनेताओं से बातचीत की। यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें लगता है कि निर्णय प्रक्रिया में ‘मौलिक परिवर्तन’ आ चुका है, एक पूर्व आरबीआई गवर्नर ने कहा, ‘हां।’ उन्होंने कहा, ‘यह पहले अनिवार्य रूप से गवर्नर और सरकार के बीच का मसला हुआ करता था। अब क्या हुआ है कि पूरे परिप्रेक्ष्य में बोर्ड का प्रवेश हो चुका है और अब यह सक्रिय है। इसने केंद्र से निर्देश लेना शुरू कर दिया है। इस तरह से यह एक दखल का मामला बनता है। अतीत के बोर्ड्स में एपीजे अब्दुल कलाम और यूआर राव जैसे लोग हुआ करते थे जो व्यापक समाज का प्रतिनिधित्व करते थे और उसी से निर्देशित भी होते थे। प्रशासनिक ढांचा अब भी वही है, लेकिन रिश्ता बदल गया है।’

आरबीआई की स्वायत्तता बाकी : पूर्व आरबीआई गवर्नर
जब एक अन्य पूर्व गवर्नर से पूछा गया कि क्या आरबीआई के पूंजी ढांचे (कैपिटल फ्रेमवर्क) की पड़ताल के लिए समिति गठित करने का मतलब यह है कि सेंट्रल बैंक अब बोर्ड से संचालित होगा, तो उन्होंने कहा, ‘ऐसा जान पड़ता है कि इसकी स्वायत्ता से समझौता किया गया है क्योंकि अब तक आरबीआई ही समीतियां गठित किया करता था।’ लेकिन, जब उनसे पूछा गया कि क्या आरबीआई की संपूर्ण स्वायत्तता से समझौता हुआ है, तो उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है कि ऐसा नहीं है।’

जो हुआ, लोकतंत्र में उसी की अपेक्षा: वरिष्ठ नौकरशाह
वहीं, एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने यहां तक कह दिया कि अब आरबीआई मैनेजमेंट का एकाधिकार सिर्फ मौद्रिक नीति तक सीमित हो जाएगा। उन्होंने कहा, ‘दूसरे नीतिगत मुद्दों पर सरकार ने बढ़त हासिल कर ली है और वही हुआ है जिसकी लोकतंत्र में हमेशा अपेक्षा रहती है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘जहां तक बात नीतिगत मुद्दों की है, तो नेहरू के समय से ही चला आया है कि आजेंडा तय करने का काम सरकार का होता है। यह संसदीय लोकतंत्र और लोक भावना के पूर्णत: अनुकूल है।’ उन्होंने कहा, ‘स्वाभाविक व्यवस्था कायम हो गई है।’

आरबीआई को सरकार के साथ ही चलना होगा : वरिष्ठ नौकरशाह
एक अन्य वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा कि अतीत में भी तनावपूर्ण माहौल बने हैं क्योंकि स्वाभाविक है कि कोई स्वायत्ता की इच्छा रखता है। लेकिन, कुछ साल पहले जब इसे चुनौती मिली तो दूसरे ने दूर जाना ही उचित समझा। ‘हम बहुमत की सरकार के तौर पर अपने मतदाताओं के प्रति सजग हैं और इसलिए हमने अडिग रहने का फैसला किया और स्पष्ट कर दिया कि आपको (आरबीआई को) हमारे (सरकार के) साथ ही चलना होगा।’