तो जीतने का काम तुमसे न हो पाएगा…

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सियासत में सबसे ज्यादा चिंता कार्यकर्ताओं को होती है। किसको टिकट मिल रहा है,कौन उपयुक्त उम्मीदवार है,फलां नेता को टिकट देने से ये फायदा और वो नुकसान। सरकार बनी तो  मंत्री कौन बने,विभाग क्या मिले ये सब कार्यकर्ता चाय चौपालों से लेकर ट्रेन की बोगियों और बस अड्डों पर बात करते हुए दिख जाएंगे। ऐसे ही लोग आम मतदाता से संवाद करते हैं और पार्टी व नेताओं के बारे में धारणा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। कह सकते हैं कोई जीते हारे सरकार किसी की बने बिगड़ ये तो बस देश की चिंता में दुबले हुए जाते हैं। देश से लेकर मध्यप्रदेश में जहां उम्मीदवार तय नहीं हुए हैं वहां निर्णय में पार्टियों की लेटलतीफी कार्यकर्ताओं को हैरान परेशान किए है। सूबे में अनिश्चितता की वजह से भाजपा के संदर्भ में भोपाल विदिशा,सागर और इंदौर सीट पर नेतृत्व की निर्णय क्षमता पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
राजनीति में अक्सर नेताओं का वास्ता कार्यकर्ताओं के बाद सबसे ज्यादा अगर पड़ता है तो वह मीडिया है। एक बार का किस्सा याद आ रहा है बात 2005 के आस पास की है।भाजपा के प्रदेश कार्यालय में एक शीर्ष नेता से सत्ता संगठन को लेकर बात हो रही थी। चूंकि उस समय भाजपा सरकार में थी और सुशासन पर सबसे ज्यादा जोर था। तब बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री हुआ करते थे। पत्रकार के नाते नौकरशाही और जमीनी हकीकत पर जब चिंता जताई जा रही थी तब माननीय नेता ने कहा मीडिया सोचता ज्यादा है। बहुत खराब हुआ तो अधिकतम नुकसान क्या होगा। हम अगले चुनाव में हार जाएंगे और क्या। इसके बाद फिर चुनाव होगा और हम जीत जाएंगे। ये जो वाक्य है ये पार्टियों और उनके नेताओं के चिंतन को बताता है। उम्मीदवारी में लेटलतीफी को लेकर भी लगता है शीर्ष नेतृत्व ऐसा ही कुछ सोचता होगा। वरना कभी भारतीय रेलों के विलंब से चलने की तरह प्रत्याशी घोषित न हो रही होती।
पार्टियां सरकार में आती हैं और उनके नेताओं का चरित्र बदलने लगता है। फिर भले ही सत्ता से हट जाएं मगर उनके नेताओं की सोच जनता और कार्यकर्ता के चिंतन से अलग हो ही जाती है। कह सकते हैं सत्ता में रहे नेताओं के रथ धर्मराज य़ुधिष्ठिर की भांति जमीन से ऊपर चलने लगते हैं। प्रदेश भाजपा के महामंत्री विष्णुदत्त शर्मा हैं तो चंबल के मुरैना के रहने वाले,जाने जाते हैं महाकौशल और मालवा के दोराहे पर त्रिभुज बनाने वाले भोपाल के लिए और पार्टी ने उन्हें टिकट दे दिया है बुन्देलखण्ड खजुराहो से।इसके पहले भी उनकी दावेदारी विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सर्वाधिक सुरक्षित सीटों भोपाल की हुजूर और गोविन्दपुरा से थी। उसमें असफलता मिलने के बाद लोकसभा में भोपाल और विदिशा से भी उनका नाम चला था।इसके बाद कुछ दिन मुरैना भी उनके नाम से जुड़ा। अंतत: वे लड़ाए जा रहे हैं खजुराहो से। पता नहीं शर्मा ने वहां चुनाव के लिहाज से कितनी सक्रियता बनाई लेकिन भाजपा के जो नेता टिकट मांग रहे थे वे जिताने में कितनी मदद करेंगे। इसे लेकर भी अनिश्चितता है। अब भाजपा संगठन में इतना दम नहीं बचा कि वह दावेदारों का भविष्य चौपट कर पार्टी के नाम पर किसी को भी जिताने का स्थानीय नेताओं से संकल्प करा ले। अब बीडी शर्मा अटल बिहारी वाजपेयी और सुषमा स्वराज की तरह मशहूर राष्ट्रीय नेता भी नहीं हैं कि उन्हें जिताने के लिए लोग प्राणप्रण से जुट जाएं। नाराजों को मनाना ही शर्मा के लिए बड़ा काम होगा। विधानसभा चुनाव में संगठन की कमजोरी बागियों को मनाने में पहले ही साबित हो चुकी है।
लेटलतीफी के चलते आमजन जिनकी सियासत में दिलचस्पी है वे मीडिया में उम्मीदवारों को लेकर चल रही शगूफेबाजी का मजा ले रहे हैं। मसलन भोपाल से लालकृष्ण आडवाणी की पुत्री प्रतिभा आडवाणी भी लोकसभा का चुनाव लड़ सकती हैं। इसके पीछे तर्क ये है कि सिंधी समाज को साधने के लिए ऐसा किया जा सकता है। क्योंकि आडवाणी का टिकट गांधीनगर से काटने के कारण यह समुदाय दुखी है। ऐसे ही लोकल सिंधी प्रत्याशी के नाम पर भगवानदास सबनानी को भी गंभीर दावेदार माना जा रहा है। विदिशा को लें तो कांग्रेस ने पूर्व विधायक शैलेंन्द्र पटैल को उम्मीदवार घोषित कर दिया है लेकिन भाजपा अभी भी यहां असमंजस में है। इसके चलते कुछ सुतंगेबाज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भी विदिशा से मैदान में उतरने की चर्चाएं कर रहे हैं। इंदौर को लें तो मौजूदा सांसद सुमित्रा ताई महाजन का 75 पार के कारण टिकट काट दिया है। लेकिन उम्मीदवार कौन होगा इसपर अभी भी वीरबल की खिचड़ी पक रही है। ऐसे में सुतंगा ये है कि महाजन ने दो ऐसे नाम आगे बढ़ा दिए हैं जिनकी अपनी हैसियत जीतने की कम है। अगर पार्टी टिकट देती है तो माना जाएगा ताई ने पार्टी से अपने अपमान का बदला ले लिया है। इसके पहले भी विधानसभा चुनाव में जिन विधायकों के टिकट काटे गए थे उन्होंने अपने क्षेत्रों में पार्टी की बैंड बाजा बारात पूरे जोश के साथ निकाली। नतीजा बीजेपी विधानसभा में सात विधायकों के अंतर से सत्ता से बाहर हो गई। सागर भी भाजपा का मजबूत किला है यहां से पिछली बार समाजवादी नेता रहे लक्ष्मीनारायण यादव को भाजपा ने मैदान में उतारा था। कार्यकर्ताओं ने उन्हें जिताया भी। लेकिन वे जनता कार्यकर्ता को संभाल कर नहीं रख पाए। नतीजा ये हुआ कि विधानसभा में जब सुरखी क्षेत्र से टिकट दिया तो उन्हें कांग्रेस के गोविन्द राजपूत से पराजय का सामना करना पड़ा। कुल मिलाकर अब कार्यकर्ता पार्टी के फैसलों को मानने के लिए बंधुआ मजदूर की तरह नहीं है इसलिए बहुत देर और मैराथन मंथन के बाद टिकट गलत उम्मीदवारों को दिए गए तो विधानसभा चुनाव की तरह प्रदेश में लोकसभा की 29 सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन 2014 के नतीजों को दोहरा नहीं पाएगा। जो नेतृत्व है उसकी हालत देखते हुए कार्यकर्ता का आम चिंतन यही कहता है“ बहुत सोचकर भी गलत निर्णय लिए तो जीतने का काम अब तुमसे न हो पाएगा ”….