कंचन किशोर
प्रदेश की 230 में से 116 सीटों के सर्वे में जो एक विशेष बात निकल कर आई है वो आश्चर्यजनक है और इस बार भाजपा-संघ गठजोड़ का इससे पार पाना टेढी खीर साबित होगा, वो है बड़ी संख्या में भाजपा से बगावत कर प्रत्याशियों का मैदान में उतरना।अब तक के सर्वे के मुताबिक प्रदेश के लगभग हर जिले भाजपा के एक या अधिक बागी उम्मीदवार मैदान में होंगे, जो भाजपा का गणित बिगाड़ तो सकते हैं पर कांग्रेस को फिर भी इसका फायदा नही मिल पायेगा क्योंकि चुनाव जीतने की स्थिति में भाजपा जरूरत पड़ने पर उन्हें तुरंत पार्टी में लेने का प्रस्ताव दे देगी या ये बागी विजेता बाहर से ही सही भाजपा को सशर्त समर्थन दे सकते हैं। ये बागी उम्मीदवार वोट काटू न हो कर कड़ी टक्कर देने वाले साबित होंगे।
Survey on 116 seats: A large number of BJP rebel candidates, but Congress has no special advantage.
अब तक के सर्वे में जो एक और गौर करने वाली बात सामने आई है वो है भाजपा से ग्रामीणों की नाराजगी, जिसमें किसान एवं श्रमिक वर्ग बड़ी संख्या में शामिल हैं। शिवराज सरकार की अनगिनत योजनाओं के बाद भी ये नाराजगी उन योजनाओं और घोषणाओं का क्रियान्वयन न होना और प्रशासनिक भ्रष्टाचार है। इस बार संगठन की दृष्टि से देखें तो जहां ग्रामीण कार्यकर्ता भाजपा संगठन से रुष्ट है तो वहीं संघ की पकड़ भी संगठन पर से ढीली हुई है।इसलिए अंतिम पड़ाव में डैमेज कंट्रोल करने वाली भाजपा को इस चुनाव में खासी मशक्कत करनी होगी।
वहीं उत्तरप्रदेश की सीमा से जुड़े चम्बल क्षेत्र, विंध्य क्षेत्र, बुंदेलखंड क्षेत्र में कांग्रेस-सपा-बसपा गठबंधन की स्थिति बनने पर भाजपा को बड़ा नुकसान होने की आशंका है। विश्वस्त सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार एन्टीनकम्बनसी फैक्टर से लड़ने के लिए भाजपा वर्तमान विधायकों में से लगभग 35% से 40% तक चेहरे बदल सकती है।बदलने पर भीतरघात एवं विद्रोह तो ना बदलने पर एन्टीनकम्बनसी का खतरा रहेगा।
शिवराज सरकार से नाराजगी का कारण शायद कुछ प्रशासनिक अधिकारियों की मनमानी एवं बुनियादी रूप से गलत योजनाओं को प्रस्तावित करना भी है और बड़ी संख्या में घोषणाओं का सिर्फ कागजों पर चलते रहना भी है। जहां एक ओर इस चुनावी वर्ष में सरकार को बहुत ज्यादा रुपयों की आवश्यकता है ताकि घोषणाओं एवं योजनाओं का क्रियान्वयन ही सके एवं नई योजनाएं प्रस्तावित हो सकें, वहीं खजाना खाली होने एक विकराल समस्या है।
कांग्रेस ने जहां कमलनाथ के रूप में चेहरा तो बदला है पर “जय जय कमलनाथ” से कांग्रेस के अन्य दिग्गज सार्वजनिक तौर पर एवं व्यक्तिगत तौर पर भी अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। वैसे भी विगत 35 वर्षों में कमलनाथ का स्वयं को छोड़ चुनावी प्रबंधन और टिकट वितरण का परिणाम बहुत ही निराशाजनक रहा है, आंकड़े इसके साक्ष्य हैं। कमलनाथ के आने से कांग्रेस को चुनाव लड़ने में रुपयों की दिक्कत से तो शायद दो चार ना होना पड़े परंतु कमलनाथ की कार्यशैली भाजपा की कमियों को शायद ही भुना पाएं। कमलनाथ के पद संभालने के बाद कोई अमूलचूल परिवर्तन ना तो पार्टी में प्रदेश स्तर पर दिख रहा है ना ही जिलों में।
मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट ना होने से सिंधिया पहले ही नाराज बैठे हैं, अरुण यादव को बाहर का रास्ता दिखाने से वे भी मुंह फूला रहे हैं। अजय सिंह कमलनाथ को फूटी आंख नही सुहाते। दिग्विजय सिंह ने हालांकि पत्ते नही खोले पर उनका कमलनाथ से सामंजस्य ठीक ठाक है। सुरेश पचौरी की कमलनाथ के साथ बनती भी है और उनको समन्वयन की कमान दे कर उनके कद को भी बढ़ाया गया है तो संभवत: भोपाल एवम अन्य संभागों के स्तर पर उनके अनुभव का फायदा मिले परंतु ऐसा तब होगा जब कांग्रेस जमीनी स्तर पर कदमताल करे।
कांग्रेस की समस्या ही इसकी दूसरी व तीसरी पंक्ति है, जिनमे अधिकांश सदस्य 20 साल पुराने हैं। कांग्रेस में नए चेहरों की बेहद कमी है, वो चाहे संगठन में हो या चुनावी प्रत्याशी के रूप में। पार्टी को चुनाव में लगभग 80 से 85% स्थानों पर पुराने चेहरों से ही काम चलाना होगा। इतना लंबा समय सत्ता से दूर रहने के बाद भी कांग्रेस की कार्यप्रणाली और संगठन शैली 2004 की ही है।
नए चेहरों को पहले से तैयार ना करना या तैयार ही नही होने देने का खामियाजा कांग्रेस को फिर भुगतना पड़ सकता है। 18 से 28 साल का नया युवा वोटर कांग्रेस के किसी नए चेहरे से परिचित नही है और पुराने चेहरों को लेकर उसकी सोच नकारात्मक है। कांग्रेस यदि महिलाओं को ज्यादा सीटें दे और युवा प्रत्याशियों को (35 वर्ष) से कम को मौका दे तो शायद सत्ता की चाबी के आसपास पहुंच सकती है वरना इस बार की हार और ” कांग्रेस मुक्त मध्यप्रदेश”।
वरिष्ठ लेखिका