चेन्नै। दक्षिणी तमिलनाडु के पलयमकोट्टई के केंद्रीय कारागार की ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे जातिगत भेदभाव का बेहद ही क्रूर तरीका अपनाया जाता है। इस जेल में बंद रहे कैदियों से पूछताछ में खुलासा हुआ है कि जेल अधिकारी कैदियों को उनकी जातियों जैसे थेवर, नाडार और दलित के आधार पर बांटते हैं और फिर उन्हें अलग-अलग ब्लॉक्स में रखते हैं।
Tamilnadu: Cruelty behavior with prisoners locked in prison, differently placed on caste basis
अलग-अलग रखने से इस बात के बेहद कम चांस होते हैं कि वे आपस में मिल सकें। इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात यह है कि जेल की रखवाली करने वाले निचले स्तर के अधिकारी कैदियों को उनकी जातियों के आधार पर संबोधित करते हैं। ऐसा तब है जब उनके सीनियर अधिकारी इस तरह जातिगत संबोधन के लिए उन्हें कई बार चेतावनी दे चुके हैं।
आपस में घुलने-मिलने पर भी रोक!
पलयमकोट्टई जेल में साढ़े सात साल सजा काटने वाले 40 वर्षीय मुनियप्पन ने कहा कि उन्होंने कई अधिकारियों के समक्ष कई याचिकाएं दाखिल कर कैदियों को उनके नाम से संबोधित करने की प्रथा को खत्म करने की गुहार लगाई है। उन्होंने कहा, ‘जब कोई बाहर मिलने आता है तो जाति आधारित नाम अक्सर सुनने को मिलता है।’
यह नहीं जेल अधिकारी इस बात की सतर्कता बरतते हैं कि कैदियों से मिलने के लिए अगर बाहर से लोग आएं हैं तो उन्हें आपस में घुलने-मिलने न दिया जाए। इस 138 साल पुरानी जेल में चार वार्ड थेवर समुदाय, दो दलितों और एक नाडार, उदयर और अन्य जातियों के लिए हैं। एक पूर्व कैदी ने बताया कि इस जेल में थेवर समुदाय के कैदियों को बेहतर सुविधाएं मिलती हैं।
जेल प्रशासन की दलील
उन्होंने बताया कि इसकी वजह यह है कि जेल के प्रमुख पदों पर पिछले कई सालों से थेवर समुदाय के लोगों का कब्जा है। इस बीच सरकार ने ऐसे किसी जातिगत भेदभाव के आरोप को खारिज किया है। कानून और जेल मंत्री सी वे शनमुगम ने कहा, ‘इस तरह की कुप्रथा राज्य की किसी जेल में नहीं है। मैं फिर भी इसकी जांच करूंगा।’
उधर, केंद्रीय जेल के अधीक्षक सी कृष्ण कुमार ने भी इस बात का खंडन किया है कि उनकी जेल में जाति आधारित ब्लॉक्स हैं। उन्होंने दावा किया, ‘विभिन्न जातिगत समूहों को जेल के अंदर एक साथ रखा जाता है।’ उधर, अनौपचारिक बातचीत में जेलकर्मियों ने स्वीकार किया कि उन्होंने कैदियों को उनकी जाति के आधार पर अलग-अलग किया है ताकि उनकी बाहर की दुश्मनी जेल के अंदर न आने पाए। यह प्रथा साल 1984 से चल रही है।