राजेश बादल
तो वह नौबत आ ही गई।गांधी मार्ग पर चलते हुए साल भर से सत्याग्रह कर रहे किसानों पर व्यवस्था का ग़ुस्सा फूटने लगा ।कोई आंदोलन लंबे समय तक अहिंसक और शांतिपूर्वक तरीके से संचालित भी हो सकता है, किसान आंदोलन उसकी एक मिसाल है।हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने जिस ढंग से इस किसान आंदोलन के बारे में अराजक और असंसदीय टिप्पणी की है ,उसकी निंदा करने के अलावा और क्या हो सकता है। एक बैठक में उन्होंने कहा कि किसानों पर डंडे उठाने वाले कार्यकर्ता हर ज़िले में होने चाहिए। ऐसे पाँच – सात सौ लोग जैसे को तैसा जवाब दे सकते हैं। एक निर्वाचित और संविधान की शपथ लेकर मुख्यमंत्री के पद पर बैठे राजनेता की यह टिप्पणी बताती है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन भी अब राज्य सरकार के गले की फाँस बन गए हैं। पिछले चुनाव में उन्होंने विपक्ष के साथ मिलकर जैसे – तैसे सरकार बनाई थी, लेकिन अब किसान आंदोलन के कारण खिसक रहे जनाधार ने उन्हें इस तरह के धमकी भरा बयान देने के लिए बाध्य कर दिया है।
प्रश्न यह है कि क्या किसी भी सभ्य लोकतंत्र में जन प्रतिनिधियों को हिंसा और टकराव का खुले आम समर्थन करना चाहिए ? जिन वर्गों के हितों की हिफाज़त के लिए अवाम उन्हें चुनकर भेजती है, उनमें किसान बहुसंख्यक हैं। यह देश सदियों से किसानों को अन्नदाता तो मानता रहा है ,लेकिन उनके आर्थिक और सामाजिक कल्याण की उपेक्षा भी करता रहा है। आज़ादी के पहले से ही यह सिलसिला जारी है। किसानों को कई बार खेती बाड़ी छोड़कर सड़कों पर उतरना पड़ा है।उन पर पुलिस की गोलियाँ भी बरसीं मगर कृषि के लिए रियायतों और उत्पादन का वाजिब मूल्य कभी नहीं मिला।चाहे किसी भी राजनीतिक दल की सरकार रही हो। एक कृषि प्रधान देश के लिए इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि किसान सबका पेट भरने की चिंता अपने धर्म पालन की तरह करें और समाज उनके सरोकारों को रद्दी की टोकरी में फेंक दे। हरियाणा के मुख्यमंत्री धरने पर बैठे किसानों के मुक़ाबले बेशक ज़िले ज़िले में कार्यकर्ताओं की हथियारबंद फ़ौज उतार दें पर क्या वे भूल सकते हैं कि आंदोलनकारी लाखों किसान भी उन्हें वोट देते आए हैं और वे भारतीय प्रजातंत्र का अभिन्न अंग भी हैं। आत्मरक्षा का अधिकार तो भारतीय दंड विधान भी देता है। कल्पना करें कि उन पाँच – सात सौ लोगों की सेना से लड़ने के लिए हर किसान ने अगर एक एक डंडा उठा लिया तो सरकार के लिए क़ानून – व्यवस्था की स्थिति संभालना कठिन हो जाएगा।पाकिस्तान में तानाशाह जनरल अयूब ख़ान को ऐसे ही जन आंदोलन के सामने अपनी सत्ता छोड़ कर भागना पड़ा था ।भारत में भी जनता के व्यापक प्रतिरोध का परिणाम हम 1977 में देख चुके हैं।
क्या यह संयोग मात्र है कि चौबीस घंटे के भीतर हरियाणा के पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में एक शर्मनाक घटना घट गई ।जिस अंदाज़ में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री ने खुले आम सत्याग्रह कर रहे किसानों को धमकाया और अपने आपराधिक अतीत का हवाला दिया, उसने किसानों के ख़िलाफ़ सीधी कार्रवाई के लिए समर्थकों को उकसाया।मंत्री ने साफ़ साफ़ कहा था कि वे केवल मंत्री ,सांसद या विधायक ही नहीं हैं। जो लोग उन्हें जानते हैं ,उन्हें अतीत के बारे में भी पता होना चाहिए। यह बाहुबली मंत्री की साफ़ साफ धमकी थी। पिता से प्रोत्साहित बेटा और चार क़दम आगे निकला।उसने ग़ुस्से में जिस तरह किसानों को अपनी गाड़ी से रौंदा, वह भयावह और विचलित करने वाला है।इसके ग़ुस्साए किसान भी हिंसा पर उतर आए। दोनों पक्ष अपने अपने तर्क दे रहे हैं ,लेकिन यह सच है कि जन प्रतिनिधियों के बयान किसानों की भावनाओं को आहत करने वाले थे। दो पड़ोसी प्रदेशों में एक मुख्यमंत्री और एक केंद्रीय मंत्री का रवैया इस बात का प्रमाण है कि हुक़ूमतें अब किसान आंदोलन को हर संभव ढंग से कुचलने पर आमादा हैं। वे किसानों के साथ अपराधियों की तरह सुलूक कर रही हैं।
इसके अलावा लखीमपुर खीरी की यह घटना एक आशंका और खड़ी करती है। एक मंत्री पुत्र का आचरण यह साबित करता है कि भारतीय लोकतंत्र अब जो नई नस्लें तैयार कर रहा है, वे मुल्क़ को मध्ययुगीन सामंती बर्बरता के युग में ले जाना चाहती हैं ।इस तरह की हैवानियत यक़ीनन हताशा और कुंठा का नतीज़ा है।उत्तर प्रदेश आने वाले दिनों में विधानसभा चुनावों का सामना करने जा रहा है । लखीमपुर खीरी की घटना के बाद सवाल खड़े हो रहे हैं कि क्या बन्दूक की नोक पर नागरिकों से उनके अधिकार तो नहीं छीने जा रहे हैं।
हमें याद रखना चाहिए कि स्वतंत्रता से पहले महात्मा गाँधी के अहिंसक और सविनय अवज्ञा आंदोलनों से तत्कालीन हुकूमत बौख़ला उठी थी। फिर उसने दमन चक्र चलाया था।उस भयावह दौर में तात्कालिक नुकसान भले ही सत्याग्रहियों या स्वतंत्रता सेनानियों को उठाना पड़ा हो ,मगर जीत अंततः सच की हुई थी। सच सर चढ़ कर बोलता है और झूठ के पाँव नहीं होते। यह बात सियासी नुमाइंदों को ध्यान में रखना चाहिए।