गणतंत्र के सपने साकार करना अभी बाक़ी है

0
160

राजेश बादल


हज़ार साल की ग़ुलामी का मानसिक त्रास क्या सत्तर साल का गणतंत्र दूर कर सकता है ? शायद नहीं। सदियों तक दास बने रहने के बाद शासन संचालन के सूत्र किसी राष्ट्र के हाथ में आ जाएँ तो वह हक्का बक्का ही रह जाएगा। नहीं सूझेगा कि आख़िर वह क्या करे। भारत के साथ यही हुआ है। अनगिनत देशभक्तों की क़ुर्बानियों के बाद जो राज हमें मिला था ,वह एक लुटा पिटा , नोचा खसोटा, फटेहाल और भिखारी जैसा मुल्क़ था।उस देश की देह से वैशाली जैसे अनेक जनपदों की लोकतांत्रिक ग्रंथि ग़ायब हो गई थी।रग़ों में बहता ख़ून पल पल दासता का बोध करा रहा था ।पीढ़ियों तक हमारे गुणसूत्रों ( क्रोमोसोम ) में यही भाव दाख़िल होता रहा।इससे क्या हुआ। जैसे शरीर का कोई अंग लंबे समय तक काम में नहीं लिया जाए तो धीरे धीरे मानव शरीर के लिए वह अनुपयोगी हो जाता है और उसके बग़ैर जीने की आदत डाल लेता है। अपेंडिक्स की तरह।यही भारत की देह के साथ हुआ। अब हम उस अंग से पूरा शरीर चलाना चाहते हैं। यह कैसे संभव है ?
हम ऐसा क्यों करना चाहते हैं।हज़ार बरस तक जम्बू द्वीप के इस इलाक़े में जो कुछ नागरिकों ने देखा या भोगा था,शासक बनने पर वही व्यवहार निर्वाचित और संवैधानिक प्रणाली के तहत हम भी कर रहे हैं।हमारे शासक परदेसी थे।उन्होंने हिंदुस्तान में अपनी शासन पद्धति चलाई थी।राज करने की उनकी शैली स्वतंत्रता के बाद से आज तक हमें लुभा रही है।भारत में स्वराज है ,लेकिन हुक़ूमत का अंदाज़ वही परदेसी है। सियासत और नौकरशाही के भीतर अपने ही राष्ट्र को लूटने की प्रवृति आज भी बरक़रार है।भ्रष्टाचार इसी की देन है। सरकारी ख़ज़ाने से निकलते धन को कुछ इस तरह हड़पा जाने लगा है मानों भारत हमारा नहीं ,बल्कि किसी अन्य देश के लोगों का है। पुलिस ,राजस्व ,वन, आबकारी और करों की वसूली करने वाले विभागों के कर्मचारियों -अफसरों तथा आम नागरिकों के बीच साफ़ सीमा रेखा है। आज इन क्षेत्रों की सेवाओं के प्रति वैसा ही आकर्षण बना हुआ है ,जैसा परतंत्रता के दिनों में हुआ करता था।पीड़ित जनता के बीच से निकला कोई व्यक्ति जब इन विभागों में काम शुरू करता है तो वह भी एक तरह से सीमा रेखा के पार चला जाता है और उन विदेशी शासकों की तरह व्यवहार करने लग जाता है ,जिन्होंने सदियों तक यहाँ लूटमार मचाई थी ।अँगरेज़ों का भ्रष्ट प्रतिबिंब आज भी आप इस तंत्र में देख सकते हैं।आईएएस होने वाला व्यक्ति अपने चक्रवर्ती होने के अहसास से भर जाता है तो राजनेता भी अपने अहं को विकराल आकार देते रहते हैं।उनके हाव भाव और व्यवहार से यही दिखाई देता है।
पिछले सप्ताह एक प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपने तंत्र को चेतावनी देते हुए कहा,” अभी अपन अलग मूड में हैं। जिस दिन मेरा तीसरा नेत्र खुल जाएगा,उस दिन आप लोगों की ख़ैर नहीं “। यह मानसिकता किसी भी सूरत में लोकतान्त्रिक तो नहीं है।अगर चेतावनी कुछ इस तरह दी जाती कि लोगों की सेवा में कोताही बरतने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की जाएगी तो उसका अर्थ ही कुछ और होता। लेकिन मौजूदा शासन प्रणाली ने उन्हें अपने ईश्वर होने का बोध कराया है और वे कहते हैं कि अभी अपन मूड में हैं तो इसका मतलब यह है कि समूची मशीनरी मुखिया के मूड पर निर्भर है। यही बरताव तो राजा किया करते थे। याने सोच में अधिनायक वाला तत्व वही है ,जो किसी गोरे अफसर पर सवार होता था।तब उस मूड में वह अफसर सरे राह किसी को भी कोड़े लगाने या जेल में डालने का हुक़्म दिया करता था।महात्मा गाँधी स्वराज में यही ख़तरा देखते थे।
अजीब सी बात है कि इन दिनों अनेक लोग महात्मा गांधी के घोर विरोधी और आलोचक नज़र आते हैं।गांधी को बिना पढ़े ही वे उनकी समीक्षा करने पर उतर आए हैं।गाँधीजी ने आज़ादी से क़रीब पंद्रह साल पहले ज़ोर दिया था कि राष्ट्र संचालन में सरकार या सत्ता का कम से कम दख़ल होना चाहिए। ग्राम स्वराज का यह पहला पाठ था।यदि उस पर अमल किया गया होता तो हमारे गणतंत्र की तस्वीर बेहद ख़ूबसूरत होती। गांधी ने चार बरस तक इस विराट देश के हज़ारों गाँवों की यात्रा की थी।उसके बाद ही गाँवों की बेहतरी के मंत्र दिए थे।वर्तमान पीढ़ी दस गाँवों की समस्या समझे बिना ही गांधी को खारिज़ कर देना चाहती है तो इसमें भारतीय लोकतंत्र का क्या दोष है। कोई भी तंत्र समाज अपने लिए रचता या गढ़ता है। बाद में यदि इंसान ही उस तंत्र के ख़िलाफ़ हो जाए तो कोई क्या कर सकता है। बक़ौल राजेंद्र माथुर ,” एक माने में भारत पर आज भी अँगरेज़ी राज है।जनता और शासकों के बीच जो संगीतमय जुगलबंदी प्रजातंत्र में चलती है ,वह हमारे यहाँ ग़ायब है…भारत के समस्त दूसरे दर्ज़े के नेताओं को ( सारे नेता आजकल दूसरे दर्ज़े के ही हैं ) एक छोटा सा संकल्प करने में क्या आपत्ति है ? संकल्प यह है कि देश भले ही कहीं जाए ,लेकिन उसे गड्ढे में ले जाने में अपनी सबसे छोटी अँगुली का भी योगदान नहीं दूँगा।इसमें क्या तुक है कि आप देश को गिराने के लिए धक्का दिए जा रहे हैं और चिल्ला रहे हैं कि कोई इसे गिरने से बचाओ “।
लब्बोलुआब यह कि गणतंत्र दिवस का संकल्प कहता है कि हिन्दुस्तान ने कभी भी अपने लोगों से वादा नहीं किया था कि आज़ाद होते ही आपके हाथ में कल्पवृक्ष आ जाएगा।यह हम थे ,जो आज़ादी और स्वराज से यह चाहते थे। जब यह लक्ष्य हासिल हो गया तो अपनी ज़िम्मेदारी भूल गए।ख़ुद ईमानदार हुए बिना हम बेईमान और भ्रष्ट तंत्र को गंगाजल से पवित्र नहीं कर सकते।आज़ादी के खेत में उगी सपनों की फसल इसीलिए अभी लहलहाना बाक़ी है ।