अकथनीय अभिशाप जो सरकारों के लिए वरदान बन गया …

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TIO, भोपाल
कौशल किशोर चतुर्वेदी

आजादी का 73 वां साल, कोरोना की मार के चलते शराब की दुकानोंको डेढ़ महीने तक बंद करने का चुनी हुई सरकारों का कड़वा अनुभव। हर प्रदेश की कमर खस्ता आर्थिक हालातों के चलते मानो झुक सी गई है। कहां से बंटेगी कर्मचारियों-अधिकारियों की तनख्वाह? कैसे रचे जाएंगे विकास के कीर्तिमान? पीने वालों को तो डंडे की मार से भी सुधारा जा सकताहै लेकिन सरकारों के बिगड़ते मर्ज की दवा किसी के पास है तो आबकारीके पास। आखिर इतना राजस्व कहां से मिलेगा…कैसे भरपाई होगी सरकार की बिगड़ी आर्थिक सेहत की। बाजार भले ही बंद रहें, अस्पताल भले ही बंद रहें, सब्जी मंडियों में भले ही काम न हो, किसानों की पूरी फसल खरीदी न जाए तो भी कुछ बात नहीं…पर शराब और भांग की दुकानें तो खोलना निहायत जरूरी है।

हम एक नजर डालते हैं कि देश में मद्य निषेध को लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचार क्या थे? गांधी का मानना था कि मद्यपान शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सभी दृष्टियों से व्यक्ति को नष्ट करता है,शराब की दुकानें समाज के लिए अकथनीय अभिशाप हैं। अत: मद्यपान को चोरी छिपे करना, यहां तक कि वेश्यावृत्ति से भी अधिक निंदनीय मानता हूं। यह अकथनीय अभिशाप ही अब सरकारों की आर्थिक सेहत बनाए रखने के लिए वरदानबन गया है। गांधी का मानना था कि मद्यपान अत्यंत पतनकारी वस्तु है, जो मनुष्य को पशु बना देती है। यह शरीर और आत्मा दोनों को दूषित कर देती है। यह नैतिक व घरेलू जीवन दोनों को नष्ट कर देती है। शराब पीना एक दुर्गुण नहीं बल्कि रोग है। इसलिए एक रोगी को बचाने के लिए उस रोगी के विरुद्ध काम करना होगा। यानि कि आर्थिक सेहत बनाए रखने के लिए सरकारें अपनी प्रजा के शरीर और आत्मा दोनों को ही दूषित कर रही हैं। इसी का परिणाम महिलाओं पर होने वाले अपराध हैं तो यह हत्या, चोरी, डकैती सहित हर तरह के अपराधों की वजह भी है। पर सरकार क्या करे … वह शराब बेचने के अपने दायित्व का ईमानदारी से निर्वहन कर रही है तो इसके बाद होने वाले अपराधों की जांच और उसकी रोकथाम की कवायद पुलिस भी पूरी ईमानदारी से करने का प्रयास करने में जुटी है। अब अपराध न हों, इसके लिए शराब की बिक्री बंद कर सरकार खुद को तो दिवालिया नहीं बना सकती। लोग शराब भी पिएंगे, अपराध भी करेंगे, पुलिस कार्यवाही करेगी, न्यायालय सजा भी देंगे और सीख भी लेंगे। अब पूरा तंत्र ही मानें तो शराब पर टिका है वरना पुलिस और अदालतों के आधे काम तो ठप ही पढ़ जाएं। और शराब से राजस्व न मिले तो वैसे भी वेतन के लाले पड़ जाएं।

और इसके अलावा गरीबों के बच्चों की शादी… आखिर कन्यादान योजनाएं हों या फिर सड़क, पुल, सिंचाई, स्वास्थ्य, शिक्षा सहित तमाम विकास के काम सभी आमदनी पर ही तो टिके हैं और इस आमदनी का पूरा दारोमदार शराब की बिक्री पर ही तो है। यह अकथनीय अभिशाप आखिरकार सरकारों के लिए वरदान ही तो बन गया है। इसीलिए तो इमरजेंसी से भी ज्यादा प्राथमिकता अगर कोई है तो वह है शराब की दुकान खोलना। और फिर शराब के सेवक तो मानो छटपटा रहे हैं कि दुकान खुले, शराब मिले ..बाकी शर्तों का क्या , सभी मान लेंगे।

हरिवंशराय बच्चन की यह पंक्तियां भी आज की परिस्थितियों को खूब बयां करती हैं- 

बजी न मंदिर में घडिय़ाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,

बैठा अपने भवन मुअज्जिन देकर मस्जिद में ताला,

लुटे खजाने नरपतियों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,

रहें मुबारक पीने वाले, खुली रहे यह मधुशाला।

पीने वालों की इस आरजू को पूरा कर सरकार एक तीर से दो निशान लगा रही है। पियक्कड़ों की सेहत बनी रहे और सरकार का खजाना भरा रहे..अब आजादी के बहत्तर साल तक यदि गांधी के विचारों पर अमल नहीं हुआ तो अब क्या होगा। अब तो सरकार आबकारी, पेट्रोल-डीजल पर वैट जैसी बैशाखियों पर ही टिकी है। सो आत्मा का पतन यदि शराब के पैसे से हुआ होगा तो बहत्तर साल का फासला बहुत ज्यादा होता है, अब आत्मा वेंटिलेटरपर पहुंच चुकी है। आज का दिन अच्छा गुजरे फिर कल जो होगा देखा जाएगा। वैसे भी सरकार गांधी जयंती, गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस जैसे महत्वपूर्णअवसरों पर शराब की दुकान बंद करने का आदेश देती है, वह भी क्या कम है गांधी जी के इस विचार को मान्यता देने के लिए कि शराब की दुकानें समाज के लिए अकथनीय अभिशाप हैं।

कौशल किशोर चतुर्वेदी देश के कई बड़े अखबारों, जैसे दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और अन्य कई प्रतिष्ठित अखबारों में काम कर चुके हैं, जाने माने पत्रकार और लेखक हैं.