राघवेंद्र सिंह
देश के जाने-माने पत्रकार रवीश कुमार … जब रवीश कुमार का नाम आते ही एक हलचल पैदा होती है। कुछ उनसे नफरत करते हैं तो कुछ उनसे बेइंतहा मोहब्बत। लेकिन मेरी कोशिश होती है कि मैं रवीश कुमार को बहुत संतुलित नजरिए से देखो सुनो समझो और फिर उनके बारे में सोचो आज हम बात कर रहे हैं उनके मशहूर “हम लोग” कार्यक्रम की। इसकी एक क्लिपिंग सोशल मीडिया पर इन दिनों खूब वायरल हो रही है। मामला है कश्मीर का। यह तब और भी प्रासंगिक हो जाता है जब कश्मीरी पंडितों पर बनी फिल्म दा कश्मीर फाइल्स की चर्चा खूब जोरों पर है। कुछ लोग इसे बहुत अच्छा मान रहे हैं तो कुछ इसे आधा सच। जैसा भी है वह फ़िल्म के जरिए सबके सामने हैं। लगता है यह फिल्म भारतीय समाज और भारतीय राजनीति के लिए एक टर्निंग प्वाइंट साबित होगी।
उम्मीद करते हैं इससे हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियत पहले से ज्यादा मजबूत होकर सामने आएंगे। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक बाद में उसी भारतीय राजनीति आने वाले वर्षों में अब नए रंग में रंगी नजर आएंगी। लगता है धर्मनिरपेक्ष नारे के दिन पीछे हो जाएंगे और पंथनिरपेक्ष नारे के दिन सुनाई पड़ेंगे। कुल मिलाकर अल्पसंख्यक को वोट बैंक समझ कर सियासत करने वाले अब अपनी राजनीतिक लाइन को बदलते नजर आएंगे हो सकता है यह सब आने वाले वर्षों में विधानसभा चुनाव और उसके बाद होने वाले लोकसभा के चुनाव में बड़ी शिद्दत से दिखाई और सुनाई भी दे यहीं से लोग कहेंगे कि भारत बदल रहे हैं… कुल मिलाकर यह सच उगलने और निगलने की कवायद है…
फिल्म को लेकर बहुत सारी बातें कही गई हैं इसकी कमाई का क्या होगा आगे फिल्में कैसे बनेगी कश्मीरियों को इससे क्या लाभ निर्माता-निर्देशक ने फिल्म से होने वाली पूरी कमाई कश्मीरियों के पुनर्वास के लिए प्रधानमंत्री राहत कोष में देने के संकेत दिए हैं। बहराल फिल्म ने 32 साल बाद कश्मीरी पंडितो के पहाड़ जैसे दुखों को सबके सामने लाने का काम किया है।
मैं रवीश कुमार 1990 का वो साल था जब मेरे जैसे हजारों साल लाखों मजदूरों के साथ अपने राज्य बिहार से पलायन कर रहे थे एक नए अवसर की तलाश उसी साल कश्मीर से लाखों की संख्या में कश्मीरी हिंदू पलायन करने के लिए मजबूर किए जा रहे थे शरणार्थी और प्रवासी में जमीन आसमान का फर्क होता है हम बीच-बीच में अपने घरों को लौटते रहे हैं और जब भी चाहे लौट सकते हैं हमेशा हमेशा के लिए लेकिन जो शरणार्थी होता है उसे मालूम नहीं कि कब लौट सकता है लौट भी सकता है या नहीं लौट सकता है हमारा घर उजड़ा नहीं था हम उजड़े हुए घरों को छोड़कर दिल्ली की तरफ नहीं निकले थे लेकिन जो कश्मीरी हिंदू दिल्ली की तरफ निकले थे उनका घर उनकी गलियां उनके मोहल्ले उनके अपने उनके मंदिर उनकी तमाम यादें सब कुछ गुजार दी गई थी एक ऐसे दौर में स्थापित होना एक सामान्य स्वाभाविक और आर्थिक प्रक्रिया है इस दौर में कश्मीरी हिंदू और पंडितों के प्रति जो हमारी संवेदना है वह किस तरह से बनती है किस तरह से जुड़ती है जुड़ती भी है या नहीं जुड़ती है जब पूरा विश्व विस्थापितों से बन रहा हो एक नया स्वरूप ले रहा हूं वैसे में ऐसे तमाम लोग जो साथी बन कर आए और पीछे एक तरह से अतीत को अपने वर्तमान के रूप में देखते रह
और जो पीछे एक तरह से इसको नहीं आती इसको अपने वर्तमान के रूप में देखते रहते हैं याद करते रहते हैं वह कैसे अपने इस पहचान को लेकर दिल्ली शहर में या हिंदुस्तान में या फिर पूरी दुनिया में घूमते रहते होंगे यह कार्यक्रम पूरी तरह से एकतरफा है इसे संतुलित करने के नाम पर सरकार की तरफ से किसी को नहीं बुलाया गया है इसे संतुलित करने के नाम पर सेकुलर मोर्चा के किसी प्रवक्ता को नहीं बुलाया गया है और इसे संतुलित करने के नाम पर किसी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी नहीं बुलाया गया है । इसमें सिर्फ वह लोग हैं जो विस्थापित हुए । जो कश्मीर के हिंदू हैं। जो पंडित कहे जाते हैं। जैसा हम समझते हैं।आज बोलेंगे यह लोग और सुनेंगे…हम लोग। राहुल मैं आपसे जानना चाहता हूं बहुत लंबी है लेकिन मेरे जैसे लोगों के लिए बहुत कम जानते हैं कश्मीर के बारे में । कहां से शुरू की जाए जिससे यह समझ में आएगी । 19 जनवरी 1990 का दिन क्यों कश्मीरी पंडितों के लिए एक खास दिन है पत्थर की तरह चिपका हुआ है सीने में।
रवीश जी के कार्यक्रम ‘ हम लोग ‘ में राहुल पंडित ने जो कहा उसे जस का तस रखने की कोशिश की है..
मैं पत्रकार हूं , लेखक हूं, मैं बात शुरू करता हूं आज के कश्मीर से। देखे कश्मीर में कुछ मूल समस्याएं हैं । उनकी कुछ शिकायतें हैं चाहे वह ह्यूमनराइट को लेकर हो चाहे वह स्पेशल आर्म फोर्सेज पावर एक्ट के रिमूवल को लेकर हो लेकिन इसके अलावा यह भी सच है कि पिछले कुछ सालों में मिलिटेंसी जो है उसकी रीड की हड्डी तोड़ दी गई है। काफी हद तक वहां स्थिति सामान्य हो चुकी है। यह काम केवल आर्मी ने नहीं किया है वहां के मुस्लिम पुलिस ने भी बहुत बढ़िया काम किया है। अब वह समय आ चुका है जब हम ट्रुथ एंड रिकॉन्सिलिएशन की बात करते हैं कश्मीर में। मेरा यह मानना है कि यह ट्रुथ एंड रिकॉन्सिलिएशन तब तक संभव नहीं हो पाएगा जब तक इस बात पर कंसेंसस नहीं होगा कि कश्मीर में 1989-90 में क्या हुआ? बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि पिछले 20 सालों में एक बहुत ही सिस्टमैटिक तरीके से एक प्रोपेगेंडा, एक अनट्रुथ फैलाया गया है…
प्रोपेगेंडा क्या है? इतने हजारों परिवार, लाखों लोग,जो बेघर हो गए उनके पीछे उस समय के जो तत्कालीन गवर्नर जगमोहन साहब उनका हाथ या स्टेट का हाथ है,जो बिल्कुल सरासर झूठ है और यह कब से शुरू हुआ 32 साल पहले 19 जनवरी 1990 को हुआ। एक छोटा सा समुदाय जो है माइनॉरिटी कश्मीरी पंडित। साढे तीन लाख लोग जो वहा रहते थे। हजारों लाखों की संख्या में जो माइनॉरिटी के लोग जो है। कश्मीरी मुस्लिम जो हैं वे मस्जिदों में गए और उन्होंने वहां जो है नारे लगाने शुरू किए जिसमें कई सारे नारे थे। मैं दो-तीन नारे यहां बताना चाहता हूं । जिससे कि दर्शकों को पता चले कि हम किस दौर से उसे में गुजरे हैं। इसमें कुछ नारे थे: यहां क्या चलेगा निजाम ए मुस्तफा, आजादी का मतलब क्या… ला इलाहा इल इल लल्लाह, सबसे जो डराने वाला स्लोगन उसमें था वह कश्मीरी में था उसका अनुवाद है- हमें अपना पाकिस्तान चाहिए विदाउट कश्मीरी पंडित मैन.. लेकिन कश्मीरी पंडितों की महिलाओं के साथ!
हम जिस दौर से गुजरे हैं उसमें मुझे क्षमा कॉल के उपन्यास दर्द पुर की एक पंक्ति याद आ रही है जिसमें उन्होंने कहा है कैसे माहौल में जिए जिए हम, आप होते खुदकशी कर लेते हैं….
मेरे ख्याल से इसे सुनने के बाद काफी कुछ साफ हो जाता है। बस इसी… थोड़े को ज्यादा और चिट्ठी को तार समझने की जरूरत है। भारत में हिंदू मुसलमान साथ रहना चाहते हैं साथ रहेंगे भी क्योंकि कोई विकल्प नहीं है दर्शन दोनों के लिए दुनिया में भारतवर्ष से अच्छा कोई देश भी नहीं है इसलिए जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां बेहतर हो सब साथ रहे भाईचारे से रहे क्योंकि कोई और देश ऐसा नहीं है जो हमारी का बजट को तो स्वीकार करेगा लेकिन हमारी नालायक क्यों नाफरमानी हो और नकाबत को मंजूर नहीं करेगा बेहतर हो सब एक साथ जाएं और दिल से माने भी सारे जहां से अच्छा हिंदुस्ता हमारा दूसरे मुल्क में ना तो अंत्येष्टि के लिए आग मिलेगी और ना कब्र के लिए इज्जत से दो गज जमी भी नसीब नहीं होगी। भारत के इतिहास में झांकने की जरूरत है क्योंकि हिंदुस्तानी मुसलमान और उसके पुरखे बाहर से नही आए वे यहीं की हवा- पानी और मिट्टी पैदा हुए और यहीं की संस्कृति में पले पुसे और रचे बसे हैं। दी कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म से ना तोड़ डरने की जरूरत है और ना ही नफरत करने की बल्कि कलेजा चीर ने वाले सच्चे सामना करने और उसे आत्मसात करने की जरूरत है जिस दिन हो जाएगा तब ना तो हिंदू में मुसलमान की दूरी रहेगी और ना ही भाईचारे की सीख देने की किसी को जरूरत होगी।
मोदी बनेंगे हीरो…
मोदी ने काट दिए वंशवाद के पर भारतीय राज्य के हाथों से भाजपा को लेकर कहें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेता पुत्रों के टिकट काटने की बात कहकर वंशवाद पर करारी चोट की है इक्का-दुक्का अपवाद को छोड़ दें तो आने वाले चुनाव में नेता और उनके पुत्रों में से किसी एक को चुनने का वक्त आने वाला है मध्यप्रदेश के संदर्भ में कहें तो एक दर्जन राजनेताओं की परिवार मोदी के वंशवाद पर प्रहार करने के बाद से सदमे में है मालवा क्षेत्र के इंदौर से लेकर महाकौशल बुंदेलखंड मध्य भारत नई पीढ़ी सन्नाटे में है। पीएम मोदी के बयान के बाद कार्यकर्ताओं की लंबी फौज अपने आप को ज्यादा ना सही थोड़ा तो सुरक्षित महसूस कर रही होगी आने वाले चुनाव में जो कुछ घटित होगा उससे मोदी की विश्वसनीयता का पारा घट बढ़ सकता है नेता पुत्रों के टिकट काटे तो कार्यकर्ताओं में मोदी एक नए अवतार के रूप में जाने और पहचाने जाएंगे बस प्रतीक्षा है तो विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में प्रत्याशियों की सूची घोषित होने की।