राजेश बादल
संयुक्त राष्ट्र संघ की सूरत और सीरत ठीक नहीं है। जिस सामूहिक सदभाव,शान्ति और विश्व बंधुत्व की भावना के कारण इसका गठन हुआ था ,उसका विलोप होता दिखाई दे रहा है।अनेक वर्षों से हिन्दुस्तान इस शिखर संस्था की दुर्बल होती काया पर चिंता का इज़हार कर रहा है।पर लगता है कि उसकी मंशा का सम्मान करने में किसी बड़े देश की दिलचस्पी नहीं है। गंभीर बात तो यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद से ही भारत इस मंच पर विकासशील देशों का एक सक्रिय और ताक़तवर स्वर माना जाता रहा है। पर अब यह स्वर हाशिए पर जाता दिखाई दे रहा है। इसलिए भारत का आक्रोश और सवाल जायज़ है कि इस पंचायत पर क़ाबिज़ सदस्य देश आख़िर कब तक हिन्दुस्तान की उपेक्षा करते रहेंगे। उसके तमाम महत्वपूर्ण फ़ैसलों में भारत की भागीदारी कब सुनिश्चित होगी ?
भारतीय सरोकार के पीछे ठोस कारण है। कई साल से जो घटनाएँ समूचे विश्व पर असर डाल रही हैं ,उनके बारे में इस संस्था की पेशानी पर बल नहीं आते। आतंकवाद रोकने की दिशा में यह संगठन आज तक क़ारगर काम नहीं कर पाया। बीते दशकों में हमने देखा है कि अमेरिका ने अपनी ताक़त का दुरूपयोग करते हुए कई मुल्क़ों को बरबादी की कग़ार पर पहुँचा दिया है। उसके लिए कोई क़ायदा – क़ानून नहीं है। अपनी वित्तीय हालत सुधारने के लिए वह किसी भी राष्ट्र के हितों की बलि चढाने में कोई संकोच नहीं करता। विडंबना है कि उसके ही देश में संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय स्थापित है।सन्दर्भ के तौर पर याद रखना चाहिए कि जब पहले विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्र संघ याने लीग ऑफ़ नेशंस बना था तो अमेरिका ने बड़ा उपहास किया था।
जब लीग ऑफ़ नेशंस नाक़ाम रहा और विसर्जित हो गया तो अमेरिका ने खुलकर प्रसन्नता प्रकट की थी।दूसरे विश्वयुद्ध में उसने जापान पर परमाणु बम गिराया तो अपने महाशक्ति होने की लोकतान्त्रिक अधिमान्यता पाने के लिए उसने संयुक्त राष्ट्र संघ की अवधारणा को जन्म दिया और स्थायी कार्यालय के लिए न्यूयॉर्क में ज़मीन दी। सबसे अधिक अंशदान देने के पीछे अमेरिका की कोई प्रजातान्त्रिक नीयत नहीं ,बल्कि अपने हित में मनमाना दुरूपयोग करना था। तबसे आज तक वह यही काम कर रहा है।
इसका एक बड़ा प्रमाण है कि सदस्य देशों के आपसी बनते – बिगड़ते रिश्तों पर संयुक्त राष्ट्र संघ अक्सर चुप्पी साधे रखता है।वह सिर्फ़ उन मामलों में बेहद सक्रिय होता है ,जिनमें अमेरिका का इशारा होता है। वैसे तो इस संगठन के मौन रहने का कारण तब उचित लगता है ,जब यह केवल दो देशों के बीच का मामला हो।क्योंकि बाक़ी संसार से उसका लेना देना नहीं होता। मगर ऐसे अनेक मामले हैं ,जिनमें कई देशों का नुक़सान होता है और संघ कोई कार्रवाई नहीं करता।उदहारण के तौर पर ईरान और चीन के साथ अमेरिका के संबंधों में तनाव के चलते अनेक देशों के हितों पर उल्टा असर पड़ा है – इसकी चिंता में संयुक्त राष्ट्र संघ कभी दुबला होता नहीं दिखाई दिया।
इसी तरह ग्लोबल वार्मिंग ,परमाणु हथियारों की होड़ और वैश्विक स्तर पर लड़खड़ाती अर्थ व्यवस्था के बारे में इस सर्वोच्च संघ ने परिणाम देने वाला कोई उल्लेखनीय काम किया हो – याद नहीं आता। अफ़ग़ानिस्तान को अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने अपनी प्रयोगशाला क्यों बना रखा है , पाकिस्तान वहाँ आतंक के बूते राज करने वाले तालिबान को मदद क्यों करता है , छोटे छोटे देशों को चीन अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों की अवहेलना करते हुए क्यों अपने क़र्ज़ के जाल में फँसा रहा है , दक्षिण चीन सागर पर चीन अपनी ठेकेदारी किस आधार पर जताता है , तिब्बत और ताइवान के मसले क्यों संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं उठते और लगभग डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले हिन्दुस्तान को वीटो के अधिकार से क्यों वंचित रखा जा रहा है – इन सवालों को पूछने का अधिकार सदस्य देशों को क्यों नहीं होना चाहिए।कोरोना कालखंड में भी संयुक्त राष्ट्र संघ की ख़ामोशी का कारण भी समझ से परे है।उसकी अपनी कोई पहल अभी तक सामने नहीं आई है। तो आख़िर इस वयोवृद्ध संस्थान को एपेंडिक्स की तरह अखिल विश्व को क्यों बर्दाश्त करना चाहिए ?
देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर अब बाक़ायदा फाइलों में बंद है। उसमें कही गई बातें आज के विश्व में बेमानी हैं। अब यह संस्था समग्र विश्व का प्रतिनिधित्व करती नज़र नहीं आती। परिवार के किसी सेवानिवृत मुखिया की तरह कोने में पड़े पड़े टुकुर टुकुर ताकते रहना जैसे इस पंचाट की नियति बन गई है। समय के साथ जो मज़बूती इस संस्थान में आना चाहिए थी ,वह नहीं आई। शनैः शनैः यह अपनी प्रासंगिकता खोता गया है। वैसे तो उमर के पचहत्तर साल कम नहीं होते ।आम तौर पर इस अवस्था में पहुंचने के बाद कुछ करने को नहीं रह जाता । ज़माना तेज़ रफ़्तार से भाग रहा है,लेकिन दुनिया भर के देशों की यह सबसे बड़ी और बुजुर्ग पंचायत हांफ़ने लगी है ।वक़्त के साथ क़दम ताल करते हुए अब यह नहीं दिखाई देती ।
अपने पालने पोसने वालों की दया पर मोहताज़ इस शिखर संस्थान पर आर्थिक दिवालियेपन की तलवार लटक रही है ।अब तक आड़े समय काम आने वाला अमेरिका भी इन दिनों मदद के नाम पर खींसें निपोर रहा है ।कुछ महीने पहले तक उस पर संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अरब डॉलर बक़ाया थे। अनेक बड़े सदस्य देशों ने तो अपना सदस्यता शुल्क लंबे समय से नहीं चुकाया है।पाकिस्तान ने तो वर्षों से अपना सदस्य्ता शुल्क नहीं चुकाया है। इस कारण ही संयुक्त राष्ट्र अपनी स्थापना के बाद पहली बार गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। इसके बावजूद बड़े मुल्क़ इस पंचायत में अपनी चौधराहट बरक़रार रखना चाहते हैं। वे इस मंच का अपने राष्ट्रीय स्वार्थों की ख़ातिर दुरूपयोग कर रहे हैं। ऐसी सूरत में सरपंच के लिए निष्पक्ष रहना बहुत कठिन हो जाएगा।