ये विश्व धरा अवनी अधिकारों की छद्म चित्रावली नही किन्तु मानव मात्र की कर्तव्य क्रांति  मांग रही: महामंडलेश्वर स्वामी शैलेषानन्द गिरी

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वर्तमान वैश्विक परिदृश्य तृतीय विश्वयुद्ध का है, कीट युद्ध का आगाज़ है। अमृत की लालसा व अनिवार्यता अब देव को भी व दानवों को बजी। आदिकाल के समुद्र मंथन में देव हो या दानव दोनों ने अस्तित्व बनाए रखने हेतु उक्त आयोजन किया था। स्प्ष्ट था कि संतुलन की चाह नही, अस्तित्व की आवश्यकता थी इस हेतु मन्थन श्रम का कर्तव्य दोनों ने निभाया। सिवाय राहु के दोनों तरफ कही कमी नही थी। अमृत कलश से चलके अमृत को देवताओं सा उद्घोष  करता राहु भी अमृत ग्रहण कर गया। देवी की दृष्टि पड़ गयी व सर धड़ से अलग कर दिया गया। फीर क्षमा दान कर सदैव वक्रीय चाल पवनपुत्र द्वारा दे दी गई उत्तर काल मे।
ये ही अनुभव इस युग मे भी पुनः दोहराया जा रहा राहु यानी ड्रैगन हेड व केतु यानी ड्रैगन टेल द्वारा। क्योंकि देवता बनने के सामर्थ्य ज अधिकारी मानव ने कर्तव्य निर्वहन छोड़ मात्र अधिकार व सुख की आकांक्षा कर ली।
जिस समय मैंने महामण्डलेश्वर  पदवी वरण की 2016 में तब ही समझ गया था कि किसी भी धर्म ग्रन्थ में अधिकारों की व्याख्या है ही नही। बाइबल , कुरान , तौरात , एंजेल, 4 वेद 18 पुराण किसी मे भी नही। तब कर्तव्य क्रांति 2016 से नगर नगर ग्राम ग्राम भटक रहा , जनमानस को समझाने कि कर्तव्य निभाये प्रथम तौर पर। तब प्रकृति, ईश्वर, शासन प्रशासन से अधिकार निवेदित कीजिये। सफाई, स्वास्थ्य, आदर्श नागरिकता की बाते प्रवचनों के माध्यम से करता रहा। किन्तु हाल फिलहाल में हताशा से महसूस हुआ कि जब देखा धर्म क्षेत्र तक व्यापारिकता के माल बनने लगे, मठो में होटल खुलने लगी, सहज संतो पर षडयंत्रो से निम्न आरोप लगने लगे, हनी ट्रैप से विषाक्त संयोजन होने लगे व सत्ता के चाटुकार सन्त तक राजनेताओं की गौद में बैठ भांड बनने लगे तो मामला परमपिता की अदालत में जाना तय था।
 अब 2020 युद्ध सा निभाओ या पूजा से, जिन मौलिक नागरिक सभ्यता के लिए तैयार रहने को कहता रहा, वो हमारी जिम्मेदारी थी। गम्भीर हो कर समझे कुछ ही किन्तु,  लगता प्रकृति भी दण्ड देने होती कृतसंकल्पित। प्राकृतिक न्याय की कठोरता का सम्पूर्ण मानव जाति साक्षी हो रही।
अब भी न सम्भले… तो तुम्हारी दास्तां भी नही होगी दास्तानों में भी। मेरा कर्तव्य , जो मेरा वो जग का। तभी प्रस्तावना कर दी शासन को कि आश्रम का उपयोग आइसोलेशन यूनिट के रूप में कर सकते शासन व प्रशासन।
किन्तु अधिकारों की थोथी पुंगी बजाने वालो से पूछना जरूरी समझ रहा अब भारत वर्ष में।क्या अब भी नही उन्हें
धर्म जातिवाद को रोना है? वंशवाद पर रोना है? नदियों की दुर्दशा पर  रोना है? नारी के शील हनन पर  रोना है ? न्याय के अंधत्व पर रोना है?समान नागरिकता पर नही है? हर संवाद पर रोना है? पाखंड पर मुझसे अपवाद पर रोना है? अर्थव्यवस्था और बाज़ार पर रोना है?हर बदलाव पर रोना है?
नदी, नारी व न्याय त्रिविधो पर जब प्रयागराज कुम्भ में मन्थन किया तब भी महसूस कर लिया था कि बिना दिव्य के हस्तक्षेप के सुधार होने की संभावना न्यून है।
खूब रोइये महाकाल ने समझ लिया..तभी शायद आया कोरोना है।
इन सब को रोना छोड़  संकल्प ले की बच गए तो सबसे उक्त विषय पर कहना ” करो ना” है।। क्योंकि मात्र कर्तव्य क्रांति ही आपको अस्तित्व में रख पाएगी। वो राहु रूपी ड्रैगन हेड चीन व केतु की तरह छाया के कर्तन करता कसाबी आतंकवाद ने फीर चीनी हिंदी भाई भाई कर, या हाथ मे मौली बांध व सर पर तिलक कर, पीठ में विश्व की छुरा भोंक दिया।  अमेरिका की नासमझी बोले या सीमा से भी परे उवभोक्तावाद  ने उसे पहले आतंकवाद पाकिस्तान की नीयत वर्ल्ड ट्रेड टॉवर के गिरने पर समझ आयी व आज कोरोना के भयावह शैतानी रोने से। भारत अतीत से चीन व पाकिस्तान के विषय मे गुहार लगाते रहा वैश्विक पटल पर। किन्तु अमेरिका व यूरोप ने उल्टे भारत पर ही अंकुश लगाया। वक़्त बदला व विश्व मे घटनाओं ने आंखे खोली। किन्तु काफी देर हो गयी थी।
देर इस बार भी भारत व अमेरिका ने की। ये कोई भौतिक स्थूल युद्ध की तैयारी नही कोरोना। ये सूक्ष्म जगत के जीवाणुओं का जगत युद्ध है। इसे लड़ने के लिए योग व यज्ञ की आवश्यकता ,क्योंकि वो ही इसका उपचार। आधुनिक विज्ञान व अध्यात्म के मिलाप से ही होना , क्योंकि एक तेज हवा ने हमें उखाड़ दिया तो अभी तो सुनामी बाकी।
  प्रेम , विश्वास व शांति की कामना हम जैसे सन्तो को भी निरन्तर तपश्चरण में। तभी अपने अपने मठ आश्रम हम शासन को आहूत करने तक को आतुर। सीता माता के राज्य निकाले पर जैसे वाल्मीकि ने उन्हें प्रश्रय दिया। वैसे कोरोना एकांतवासी आनुसन्धान हेतु ऐसी जगह आदर्श होती।
हम नागा मध्यकाल से भारत माता की रक्षा के लिए यवनों से लेकर अंग्रेज़ो तक से लड़े, एक हाथ मे शास्त्र तो दूजे मे शस्त्र ले कर। हमारे प्रत्येक प्रयास शासन के साथ ईस व्याधि से   सामना के लिए। साथ मे  सर्वे भवन्तु सुखिनम के भाव भी।
इस जगह से  नमन समस्त विद्वत जनो को ।
एक विनम्र निवेदन ले कर लिख रहा हू।आपके हमारे शांत अद्वैत आश्रम को कोरोना आइसोलेशन यूनिट बनाने की प्रस्तावना कर चुका शासन प्रशासन को। बहुत से कारण है, प्रथम राष्ट्रीय विपदा, द्वितीय कर्तव्य क्रांति 2016 से अभी तक जारी रखने भाव से। जो कि जन संवेदनहीनता से ही प्राकृतिक  न्यायालय में गया मामला।
सबसे बेहतर ये कि यथा ब्रह्मांड तथा पिंड। पिंड या यानी आप हम, संयम से स्वयम को प्रसन्न रखे। सहज सावधानियां है, जो वैदिक काल में भी हम मानते आए थे। बेहद सकारात्मक सोच रखे। “what you think you become” पाश्चात्य दर्शन में कहा गया,’As you think you grow” बौद्ध चिंतन में कहा गया।
निरन्तर सिर्फ भय को रखेंगे , प्रसारित करेंगे तो निश्चय ही भविष्य में लंबे समय तक भय रहेगा। न ही इस विपदा का मजाक उड़ाने की बाते करे। “दुर्जनम प्रथमं वंदयामि” यानी दूर से ही सबसे प्रथम प्रणाम व निरन्तर सावधानी इस विपदा को कर व रख के सबको सकारात्मक बनाये।
आइये समय मिला समय को भी अपनी त्रुटियां सुधारने का। तो बेहतर इस छुट्टियों का आनन्द ध्यान, अध्यात्म व सबको हंसाने में करे।
जैसा सोचेंगे वैसा वापस आएगा। The law of nature यही। जो बोएगा वही पायेगा….
मैं आपातकालिक खबर के अलावा, या प्रेरणास्पद खबर के अलावा कोई खबर नही भेजूंगा न ही सन्देश। ये संकल्प मेरा
क्या आप साथ है ?
अन्यथा घरों में रहे किन्तु पोस्ट न डाले। ये वर्चुअल दुनिया को एक डस्टबिन बनने से रोके। अन्यथा quarantine यहां भी होगा।