राजेश बादल
वरिष्ठ पत्रकार
कमाल है। ऐसे पत्रकार तो कभी नहीं थे। हर सूचना को सच मान लेना और उसके आधार पर निष्कर्ष भी निकाल लेना कौन सा पेशेवर धर्म है? बीते दिनों कई उदाहरण सामने आए। एक नमूना यह कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री दिल्ली आए तो मान लिया गया कि उनका इस्तीफा होने ही जा रहा है। इस आशय की खबरें प्रसारित होने लगीं। यह भी मान लिया गया कि दिल्ली से भेजे गए नौकरशाह उप मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने ही जा रहे हैं।
डिजिटल मीडिया के कुछ मंचों से प्रधानमंत्री का चित्र गायब हो गया तो कहा गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ है। फिर खबर फैली कि अलग पूर्वांचल प्रदेश बनाया जा रहा है। उसमें गोरखपुर भी आएगा। मुख्यमंत्री को उस छोटे से राज्य के बस्ते में ही बंद कर दिया जाएगा। अतीत का उदाहरण दिया गया कि नारायण दत्त तिवारी के साथ भी ऐसा हुआ था। वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे। फिर एक समय ऐसा आया, जब उन्हें प्रधानमंत्री का चेहरा समझा जाने लगा। लेकिन वे नए नवेले उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन गए। उत्थान और पतन की यह गाथा योगी के साथ भी चस्पा कर दी गई।
पत्रकारिता में सियासत के परदे के पीछे की कहानी समझने और उसका विश्लेषण करने का हुनर क्यों नदारद हो गया? इन दिनों प्रत्येक सूचना या अफवाह के आधार पर नया काल्पनिक सच गढ़ने की शैली क्यों विकसित हो गई। हमारे राजनीतिक विश्लेषक इतने बौने हो गए कि वे सियासी सूचना की तह तक जाने का प्रयास तक नहीं करते। पत्रकारिता में दशकों से एक मंत्र प्रचलित है कि जो कहा जाता है, वह किया नहीं जाता और जो किया जाता है, वह होठों से नहीं फूटता। बेशक यह बुर्जुआ लोकतंत्र की निंदनीय परंपरा है, मगर आज के आधुनिक हिन्दुस्तान ने इसे अभी तक छोड़ा नहीं है।
फिर हमारे खबरनवीस या जानकार इस मंत्र का जाप क्यों नहीं करते। वे ऐसा करें तो टीवी चैनलों में प्रसारित होने वाली आधी ब्रेकिंग न्यूज बंद हो जाएं, जो आगे जाकर गलत साबित होती हैं। कम से कम तीस फीसदी ऐसी बहसें बंद हो जाएं, जो काल्पनिक सच पर हुआ करती हैं। मसलन, अगर योगी हट गए तो उनके उत्तराधिकारी कौन होंगे। इसी तरह मध्य प्रदेश में सिंधिया ग्वालियर से भोपाल जाएं तो यह छप जाए कि शिवराज का इस्तीफा होने ही जा रहा है।
हमारी पत्रकारिता को यह कैसी सनसनी का रोग लग गया है, जो खून में हरारत नहीं चाहता, एक शर्तिया उबाल चाहता है। अफीम के नशे की तरह। नए पत्रकारों की पौध तैयार करने वाले तमाम विश्वविद्यालयों पर यह करारा तमाचा भी है, जो उन्हें पॉलिटिकल रिपोर्टिंग और राइटिंग पढ़ाते हैं। अखबारों और टीवी चैनलों के मालिकों- संपादकों के लिए भी यह एक गंभीर चुनौती है। अधकचरी जानकारियों को सच बता देना और फिर उस सच का विश्लेषण करना उन्हें मूषक बनाता है। पत्रकारिता को यह मूषक फिर विदूषक बना देता है मिस्टर मीडिया!
(यह लेखक के निजी विचार हैं)