राजेश बादल
पाँच प्रदेशों में विधानसभा चुनावों के बीच केंद्रीय बजट आकर्षित तो करता है ,लेकिन हिन्दुस्तान के सामने खड़ी गंभीर चुनौतियों से लड़ने का कोई ब्लू प्रिंट प्रस्तुत नहीं करता।डिज़िटल विश्व में दाख़िल होने के इरादे का आप स्वागत कर सकते हैं ,क्रिप्टो करंसी एक लुभावना जुमला है लेकिन उसमें आम भारतीय की भागीदारी कितनी होगी – कहना मुश्किल है।भारत के औसत विकास में क्रिप्टो करंसी का योगदान अधिक नहीं होगा।बतौर वित्त मंत्री निर्मला सीता रमण का यह चौथा बजट रहा ।पर, तीन बजटों के अनुभव और पूरे नहीं हो पाने वाले वादों के जंजाल से निकलने की कोई विशेषज्ञ दृष्टि भी इसमें नहीं दिखाई दी ।भारत के विभिन्न वर्गों के चेहरे पर यह बजट मुस्कान नहीं लाता, बल्कि उनकी चिंताएँ बढ़ाता है।किसानों ,नौजवानों, महिलाओं ,कारोबारियों और अपना रोज़गार कर रहे करोड़ों मतदाताओं को यक़ीनन इससे निराशा हाथ लगी है। यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश जैसे महा देश के विधानसभा चुनाव में भी यह बजट सत्तारूढ़ दल को कोई सहायता नहीं पहुँचाता।
दरअसल बजट के जानकार इसे एक ऐसा दस्तावेज़ बताते हैं ,जिसके आधार पर कोई हुक़ूमत अपने मुल्क की आर्थिक सेहत सुधारने का काम करती है। वह प्रयास करती है कि देश आर्थिक बदहाली से बचा रहे और मौजूदा वित्तीय समस्याओं से निपटने का हल निकाला जा सके।आज़ादी के बाद केंद्रीय बजट को राष्ट्र के पुनर्निर्माण का रास्ता माना जाता रहा और उसे सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ाने में पंच वर्षीय योजनाओं का बड़ा हाथ रहा। चुनाव के समय भले ही नेता लुभावने वादे करते थे ,जो कभी भी पूरे नहीं किए जा सकते थे।मगर ,बजट में इस तरह की घोषणाएँ नहीं होती थीं, जिनको अमली जामा न पहनाया जा सके।इधर हालिया वर्षों में बजट ग्रन्थ से दूरगामी आर्थिक समस्याओं के समाधान और दूर होते गए हैं।बजट की शक्ल कुछ कुछ चुनावी घोषणापत्र की तरह होती जा रही है।जो काम इस वार्षिक प्रामाणिक डॉक्यूमेंट में हाज़िरी लगाए बिना नहीं होने चाहिए ,हम देखते हैं कि वे धड़ल्ले से साल भर होते रहते हैं।मसलन हज़ारों करोड़ की किसी परियोजना का ऐलान कभी भी हो जाता है, भले ही उसका प्रावधान हो या नहीं। उसके लिए धन का स्रोत क्या होगा ,कई बार तो यह भी स्पष्ट नहीं होता।साल भर क़ीमतें बढ़ती रहती हैं।कभी भी ट्रेनें शुरू होती रहती हैं।किराए बढ़ते रहते हैं।रियायतें काट ली जाती हैं। रेलों में खाना परोसना बंद हो जाता है ,बिस्तर मिलना बंद हो जाता है ,पर किराए में कोई कमी नहीं होती।योजनाओं के निर्धारण में नीति आयोग की ठोस भूमिका क्या है ,शायद ही किसी को पता हो।जब बिना तैयारी के भारी भरकम घोषणाएँ की जाती हैं तो अवाम का भरोसा भी उठता है ,क्योंकि वे वास्तव में कभी पूरी ही नहीं होतीं। धारणा बनती जा रही है कि संसद में बजट पेश करना औपचारिकता मात्र बन कर रह गया है।इसीलिए हम देखते हैं कि केंद्र के एक रूपए के आने और उसके ख़र्च होने में अंतर संबंध अजीब सा है।
कुछ वर्षों के बजटों का अध्ययन कीजिए – तस्वीर साफ़ हो जाती है।भारत का मध्य आय वर्ग और निम्न आय वर्ग सबसे प्रताड़ित दिखाई देता है।क़ीमतें आसमान छू रही हैं और इन वर्गों की आमदनी घटती गई है।घर घर में बेरोज़गार बैठे हैं। न उनके लिए नौकरियाँ हैं और न वे अपना स्वयं का कारोबार प्रारंभ करने की स्थिति में बचे हैं।बेरोज़गारी से निपटने के लिए सरकार के पास कोई योजना ही नहीं है। डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले देश में सालाना 16 लाख नौकरियाँ क्या मायने रखती हैं ? पेट्रोल और डीज़ल के दाम लक्ज़री आइटम की तरह बढ़ते हैं।आज बिना स्कूटर, मोपेड या बाइक के गृहस्थी की गाड़ी नहीं चलती। उनमें पेट्रोल भराते समय अवाम को रोना आता है।किसान डीज़ल खरीदने के बाद एक एक बूँद बहाने के लिए दस बार सोचता है।अपना घर लेने के लिए ब्याज की दरों में बैंक रियायत नहीं देते और बचत पर ब्याज घटता जा रहा है।
दो हज़ार बाईस के बजट में जिन बातों पर वित्त मंत्री ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया है ,उसका आम आदमी से वास्तव में कोई लेना देना नहीं है। चाहे वह डिज़िटल करंसी की बात हो या पोस्ट ऑफिस को कोर बैंकिंग से जोड़ने की बात हो ( वह तो पोस्ट ऑफिस पहले से ही कर रहे हैं ) ई पासपोर्ट की बात हो अथवा पेशेवरों को सहूलियतों की बात हो – व्यावहारिक धरातल पर आम नागरिक फ़ायदे में नहीं दिखाई देता।किसान फिर एक बार ठगे गए हैं। उनकी आमदनी दो गुनी करने का वादा कई बरस पहले किया गया था ,पर उल्टा हुआ। उनकी आय घटकर आधी रह गई है। कहा गया है कि एमएसपी का पैसा किसानों के खाते में सीधे जमा किया जाएगा।इससे सुधार क्या हुआ – समझ से परे है। जीएसटी का राज्यों के हिस्से का पैसा तो उन्हें समय पर नहीं मिलता। किसानों का पैसा साल भर बाद आया तो किस काम का ? यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की अर्थ व्यवस्था में कृषि की भागीदारी लगातार कम हो रही है। साल 1951 में यह भागीदारी 51 फ़ीसदी थी। दो बरस पहले यह घटकर 14. 8 फ़ीसदी रह गया। इसके बावजूद देश की क़रीब 60 फ़ीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है। यह किसी भी देश के लिए चेतावनी मानी जा सकती है। फिर भी हम खेती किसानी को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।किसी एक सरकार को दोष देना ठीक नहीं ,पर यह सच है कि कृषि की उपेक्षा आने वाले दिनों में भयावह स्थिति बना सकती है। हमारे आर्थिक विशेषज्ञों और बजट के नियंताओं को इसे समझना होगा।