पाकिस्तान में प्रतिपक्ष के पीछे किसकी सियासत

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राजेश बादल

पड़ोसी पाकिस्तान की सियासत बदले अंदाज़ में है।प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को ऐसे विपक्षी तेवरों का सामना करना पड़ रहा है,जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी।रविवार को तमाम विपक्षी दलों के एक मंच पर आने से यह स्थिति बनी है। इसमें दो धुर विरोधी पार्टियाँ पीपुल्स पार्टी और मुस्लिम लीग भी एक साथ आ गई हैं।इन दलों ने ऑनलाइन ऑल पार्टी कांफ्रेंस की और इमरान सरकार के ख़िलाफ़ निर्णायक संघर्ष छेड़ने का ऐलान कर दिया।इस कांफ्रेंस को पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने भी संबोधित किया। इन दिनों वे लंदन में इलाज़ करा रहे हैं। कांफ्रेंस में उनके भाषण पर हुक़ूमत को सख़्त एतराज़ था। इसलिए मीडिया पर उसे दिखाने या प्रकाशित करने पर पाबंदी लगा दी गई थी।फिर भी विदेशी पत्रकारों और सोशल मीडिया के अन्य अवतारों के ज़रिए लोगों तक ख़बरें पहुँच ही गईं।अब समूचे प्रतिपक्ष ने एक लोकतांत्रिक मोर्चा बना कर मुल्क़ में बड़ा आंदोलन छेड़ने का फ़ैसला लिया है। यह मोर्चा पाकिस्तान के चारों राज्यों में गाँव -गाँव रैलियाँ निकालेगा ,सभाएँ करेगा और नए साल की शुरुआत पर जनवरी में राजधानी इस्लामाबाद में महा रैली करेगा।इस मोर्चे ने छब्बीस सूत्री एक कार्यक्रम बनाया है। इस कार्यक्रम के सहारे विपक्ष आगे बढ़ेगा।

पाकिस्तान के इतिहास में इस तरह की प्रतिपक्षी एकता पहले कभी नज़र नहीं आई। पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने इस कांफ्रेंस के लिए पहल की थी। शुक्रवार को उन्होंने टेलिफ़ोन पर पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से अनुरोध किया था कि वे इस आयोजन में शिरक़त करें और मार्गदर्शन दें । पहला भाषण पूर्व राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी का था। उन्होंने पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली पर ज़ोर दिया। ज़रदारी ने कहा कि इमरान सरकार जिस तरह से सत्ता में आई है,वह वैध नहीं है । फ़ौज के समर्थन से इमरान की पार्टी तहरीक़ ए इंसाफ़ ने चुनावों में धाँधली की है। ज़रदारी ने फ़ौज पर इशारों ही इशारों में आक्रमण किए। उनकी पार्टी इमरान ख़ान को कठपुतली ही मानती है।

असल केंद्र बिंदु तो पाकिस्तान की सेना ही थी। ज़रदारी के बाद नवाज़ शरीफ़ बोले। उनके सुर बेहद तीख़े थे। ज़रदारी की तुलना में नवाज़ ने फ़ौज पर खुलकर प्रहार किए। उन्होंने हालाँकि इमरान सरकार को कोसते हुए कश्मीर का मुद्दा उछाला और चीन के राष्ट्रपति शी ज़िन पिंग की तारीफ़ की। ग़ौरतलब है कि जब इमरान विपक्ष में थे तो शी ज़िन पिंग की पाकिस्तान यात्रा के ख़िलाफ़ धरने पर बैठ गए थे और चीनी राष्ट्रपति को अपनी यात्रा रद्द करनी पड़ी थी। तब नवाज़ शरीफ़ प्रधानमंत्री थे। अपने संबोधन में नवाज़ शरीफ़ इसका ज़िक्र करना नहीं भूले ।यह भी याद रखना ज़रूरी है कि कारगिल जंग के बाद अपने बयानों से नवाज़ शरीफ़ की छबि भारत के प्रति सहानुभूति रखने वाले राजनेता की बन गई थी।इस कारण उन्हें बाद में ग़द्दार तक कहा गया। इसके बाद वे सँभले और अपनी छबि चीन के संग अच्छे रिश्तों वाले राजनेता की बनाई।

हालिया घटनाक्रम के चलते चीन ने पड़ोसी देशों पर भारत के ख़िलाफ़ खुलकर सामने आने का दबाव बनाया था। नेपाल तो इस दबाव में आ गया। श्रीलंका ने बता दिया कि उसकी पहली प्राथमिकता भारत ही रहेगा और बांग्लादेश ने भी चीन का बहुत साथ नहीं दिया। पाकिस्तान ने दबाव में भारत को घेरने की कोशिश तो की लेकिन वह कश्मीर से आगे नहीं बढ़ पाया। चीन पाकिस्तानी सेना से और आक्रामक होने की अपेक्षा कर रहा था। लेकिन पाक सेना का मनोविज्ञान 1971 के बाद हिन्दुस्तान से पंगा नहीं लेने का है। वह गुरिल्ला तरीक़े से तो लड़ सकती है ,लेकिन खुले युद्ध में उसके लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। चीन पाक फ़ौज के संकोच से ख़ुश नहीं है। वह एकदम सीधा साथ चाहता है। बीते दिनों चीन – पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की धीमी रफ़्तार पर चीन ने इमरान सरकार से ग़ुस्से का इज़हार किया था। नाराजगी दूर करने के लिए इमरान सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा के साथ तीन बार चीन जा चुके हैं। विदेश मंत्री महमूद क़ुरैशी भी चीन से बेआबरू होकर लौट चुके हैं।उनसे तो शी ज़िन पिंग ने मिलने से भी इनकार कर दिया था।

इसलिए इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कोई उलझन नहीं होनी चाहिए कि भारत की आक्रामक घेराबंदी के लिए चीन पाकिस्तान से खुलकर साथ देने की आस लगाए बैठा है।वह अपनी सेना को जंग में शायद नहीं झोंकना चाहे। अलबत्ता पाकिस्तानी सेना के बहाने से भारत को परेशान करने उसे सहूलियत है। अब वह पाकिस्तान में ऐसी सरकार चाहता है ,जो उसके इशारों पर नाचे।क्या ज़रदारी और नवाज़ शरीफ की जोड़ी उसकी ख़्वाहिश पूरी कर सकती है।भारत के साथ सीधी जंग तो वहाँ की कोई भी सरकार पसंद नहीं करेगी। बहुत संभव है कि ऑल पार्टी कांफ्रेंस बीझिंग में लिखी गई पटकथा का एक अध्याय हो। लेकिन यह तय है कि अगर इसके पीछे चीन का हाथ है तो उसे नाक़ामी हाथ लगेगी। फिर भी हिन्दुस्तान को इस नज़रिए से पाकिस्तान पर ध्यान देना होगा। भारत के लिए पाकिस्तान में चीन के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली सरकार की तुलना में दिमाग़ी तौर पर लंगड़ाती हुक़ूमत अधिक अनुकूल होगी।