राजेश बादल
यह लगातार दूसरा साल है,जब भारतीय शिक्षा तंत्र तमाम परीक्षाओं को चरमराते देख रहा है । कोरोना काल ने स्कूली, महाविद्यालयीन, पेशेवर पाठयक्रमों और प्रतियोगी इम्तिहानों में शामिल होने वाले करोड़ों किशोरों और नौजवानों के दो बरस मिट्टी में मिला दिए हैं ।उनके भविष्य के सपनें बुनने के ये लम्हें बरबाद हो चुके हैं। कोई नहीं जानता कि यह सिलसिला कितने महीने या कितने साल चलेगा, लेकिन यह तय है कि दुनिया के सबसे युवा लोकतंत्र की धड़कनें इन दिनों मंद पड़ गई हैं । विडंबना है कि हिंदुस्तान के सारे राज्य परीक्षाओं के मामले में अलग अलग नीतियां अपना रहे हैं ।यह रवैया बेहद खतरनाक है और अखिल भारतीय सेवाओं में जाने वालों तथा निजी क्षेत्र में रोज़गार चाहने वाले नौजवानों के साथ न्याय नहीं करता । यह एक तरह से शिक्षा के समान अवसर की संवैधानिक भावना से भी खिलवाड़ है ।
उदाहरण के तौर पर एक बड़े राज्य मध्यप्रदेश ने अपने यहां दसवीं और बारहवीं परीक्षा के किशोरों को जनरल प्रमोशन देकर उनका एक साल बरबाद होने से बचा लिया । मगर इसी राज्य ने कॉलेजों में ऑन लाइन तथा कक्षाओं में आकर बैठने की छूट भी छात्रों को दी । कोरोना की दूसरी लहर के ठीक पहले तक यह व्यवस्था चलती रही । कॉलेजों में प्राध्यापक और गैर शिक्षण कार्य में लगे कर्मचारी नियमित रूप से अपनी संस्थाओं में जाते रहे ।छात्रों की भीड़ प्रवेश के लिए पहुंचती रही और दोनों पक्ष कोरोना संक्रमित होते रहे ।प्रदेश में अब तक स्कूलों और कॉलेजों के सैकड़ों लोग अपनी जान गँवा चुके हैं। अजीब सी बात है कि जो महामारी बारहवीं कक्षा के छात्र को अपना शिकार बना सकती है,क्या वह स्नातक के छात्र को छोड़ देगी,समझ से परे है । यही नहीं , इस राज्य के महाविद्यालयीन छात्रों को रियायत दी गई है कि वे सालाना परीक्षा के लिए घर से किताबों से नकल टीप कर उत्तर पुस्तिकाएं कॉलेज ले आएं और कॉलेज में जमा कराएं । अर्थात कॉलेज में ये छात्र संक्रमण का खतरा उठाते हुए जाएंगे । उस महाविद्यालय में उत्तर पुस्तिकाओं को एकत्रित करने और उनका मूल्यांकन करने वाले प्राध्यापकों को दैहिक रूप से पहुंचना होगा । यह कोरोना संक्रमण के विस्तार की आशंका को बढ़ाता ही है । सरकार के इस सोच पर सवाल क्यों नही उठाए जाने चाहिए ।कोरोना की दूसरी लहर का शिकार तो अधिकतर हमारे युवा ही हो रहे हैं।अब राज्य के नागरिक यह मांग कर रहे हैं कि कॉलेज में भी जनरल प्रमोशन दिया जाना चाहिए। निश्चित रूप से यह अनुरोध न्याय संगत है। कुछ राज्यों ने ऐसा निर्णय लिया भी है।मध्यप्रदेश कांग्रेस ने मुख्यमंत्री से कहा है कि प्रदेश में कोरोना संक्रमण से जनता त्रस्त है। लोग कीड़े मकोड़ों की तरह मर रहे हैं। छात्र अपने परिवार और रिश्तेदारों की चिंता में तनावग्रस्त हैं और परीक्षाओं के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हैं।वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाएँगे। इम्तिहान कराना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। इसलिए जनरल प्रमोशन के सिवा कोई विकल्प नहीं है।हालाँकि जनरल प्रमोशन की भी अपनी एक दुविधा है।उसमें छात्रों को साल भर उनके आंतरिक मूल्यांकन याने सेमेस्टर या अंतराल में होने वाली सैद्धांतिक और प्रायोगिक परीक्षाओं में प्राप्त अंकों के आधार पर ग्रेड या डिवीज़न देने का सिद्धांत अपनाया जाता रहा है। बीते बरस लगातार लॉक डाउन ,कोरोना ,कर्फ्यू ,अकाल मौतों और घर घर में भयावह शोकाकुल माहौल के कारण आंतरिक परीक्षाएँ ढंग से नहीं हो पाई।यदि किसी तरह हो भी गईं तो छात्रों की मानसिक अवस्था इस लायक नहीं थी कि वे सामान्य हालत में कोई इम्तिहान दे पाते। ज़ाहिर है कि जनरल प्रमोशन भी अनेक विसंगतियों से भरा होगा।
अब एक स्थिति उन राज्यों की देखिए ,जहाँ परीक्षाएँ कराई गई अथवा कराई जा रही हैं। इन राज्यों की परीक्षाओं में छात्र अपनी योग्यता के अनुसार प्रदर्शन करते हैं। इनमें अनेक अनुत्तीर्ण भी होते हैं। उन्हें स्नातक अथवा स्नातकोत्तर पास करने के लिए एक साल और इंतज़ार करना पड़ेगा,लेकिन जनरल प्रमोशन पाने वाले छात्रों के साथ ऐसा नहीं होगा। वे प्रतियोगी परीक्षाओं और रोज़गार के साक्षात्कारों में शामिल होने के पात्र हो जाएँगे।अनुत्तीर्ण छात्र शिक्षा और रोज़गार के समान अवसर पाने के संवैधानिक हक़ से वंचित हो जाएँगे ।राष्ट्रीय आपदा की स्थिति में यदि कोई फ़ैसला लिया जाए तो यह देखा जाना चाहिए कि उससे किसी भारतीय के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन नहीं हो। इसी क्रम में संघ लोक सेवा आयोग की प्रवेश परीक्षाओं की स्थिति भी देखी जानी चाहिए। पिछले साल भी महामारी के चलते प्रारंभिक प्रवेश परीक्षा की तारीख़ बढ़ानी पड़ी थी और इस साल भी मई से बढ़ाकर जून और अब अक्टूबर कर दी गई है। लाखों छात्र इस परीक्षा में शामिल होते हैं। कोई नौकरी छोड़ कर तैयारी करता है तो किसी के लिए यह अंतिम अवसर होता है। किसी की उमर ज़्यादा हो रही होती है तो वह आईन्दा के लिए अपात्र हो जाने वाला है । संघ लोक सेवा आयोग ने हालात से वाक़िफ़ होते हुए कोई संशोधित चयन प्रणाली विकसित नहीं की। वह इस त्रिस्तरीय प्रक्रिया की जगह द्विस्तरीय भी कर सकता था। इसके अलावा ऑन लाइन परीक्षा की कोई तरक़ीब खोजी जा सकती थी।यह भी नहीं किया गया। जो समाज यथास्थिति वाद को अपनाता है और सामान्य स्थिति होने तक हाथ पर हाथ धरे बैठता है ,वह जड़ता को जन्म देता है। इक्कीसवीं सदी में भागते विश्व में एक जड़ हिन्दुस्तान को कौन स्वीकार करेगा।जो समाज बदलते हाल में अपने को विवेकशील और सार्थक ढंग से बदलता है ,वही वक़्त के साथ क़दमताल कर सकता है। क्या इस मामले में हम पश्चिम और यूरोप से कुछ सीखेंगे ?