अदालतों की भाषा समझ में क्यों नहीं आती ?

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राजेश बादल

विडंबना है। सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों को एक हाईकोर्ट के निर्णय की भाषा समझ में नहीं आई। माननीय न्यायमूर्ति को कहना पड़ा कि फ़ैसले में उच्च न्यायालय आख़िर क्या कहना चाहता है ? एक अन्य न्यायाधीश ने फ़ैसला पढ़ने के बाद कहा कि उन्हें अपने ही ज्ञान पर संदेह होने लगा है। निर्णय पढ़ते समय अंतिम पैराग्राफ़ पढ़ते समय उनका सिरदर्द होने लगा और सिरदर्द की दवा लगानी पड़ी।इसके बाद इस सर्वोच्च न्याय मंदिर ने अदालतों को अपने निर्णय सरल और आसान भाषा में लिखने की नसीहत दी है। सवाल पूछा जा सकता है कि विद्वान न्याय – पंडितों को ही अपने तंत्र में कामकाज की भाषा पल्ले नहीं पड़ रही है तो आम आदमी कैसी परेशानियों का सामना करता होगा ,जो साल भर कोर्ट -कचहरियों के चक्कर लगाते हुए एड़ियाँ सपाट कर देता है।वह ऐसे मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करता है ,जिसे कान्वेंट में पढ़ने और अँगरेज़ी समझने का अवसर नहीं मिला।इस कारण एक मुवक़्क़िल अपनी जेब बेवजह – बेबसी से लुटते हुए देखता रहता है।यह प्रश्न अनुचित नहीं होगा कि एक अधिवक्ता का अँगरेज़ी ज्ञान क्या न्यायमूर्ति से अधिक होगा ? वह अपनी बोली अथवा राष्ट्रभाषा में ज़िरह करने का वैधानिक अधिकार क्यों नहीं रखता ?


अदालतों की भाषा पर यह पहली टिप्पणी नहीं है। पहले भी न्यायालयीन निर्णयों में इस तरह के भाव झाँकते रहे हैं। चंद रोज़ पहले राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने जबलपुर में चिंता का इज़हार किया था।राष्ट्रपति जी स्वयं भी शानदार वक़ील रहे हैं। उमर भर उन्हें न्यायालयों की अटपटी भाषा से जूझना पड़ा है।उनकी वेदना से कौन असहमत हो सकता है ? राष्ट्र के शिखर पुरुष की भावना का सम्मान केंद्र और राज्य सरकारों का कर्तव्य बन जाता है क्योंकि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में यह पद विधायी अर्थ भी रखता है।प्रसंग के तौर पर याद करना उचित होगा कि पिछले बरस हरियाणा सरकार ने प्रदेश की अदालतों और न्यायाधिकरणों में हिंदी को अधिकृत भाषा लागू करने का निर्देश दिया था। इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।याचिका कर्ता ने बेतुका तर्क दिया कि इस फ़ैसले से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने मामले लड़ने में दिक़्क़त होगी। वे भूल गए कि ये कंपनियाँ भी तो भारतीय वकीलों को ही अनुबंधित करती हैं।फिर यह चिंता केवल भारत को ही क्यों होनी चाहिए ? रूस,चीन,जापान,जर्मनी समेत अनेक देश हैं,जो दशकों से अपनी भाषा में कामकाज कर रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को वहाँ मुश्किल पेश नहीं आई तो हिन्दुस्तान उनकी चिंता में दुर्बल क्यों हो जाए।इसी मामले में अदालत ने यह व्यवस्था दी कि जब ब्रिटिश हुक़ूमत के दरम्यान अदालतें स्थानीय बोली या भाषा को मान्यता देती थीं तो आज ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए। हिंदी भाषी राज्यों में तो राज्य स्तर पर इसकी अनुमति क़ानूनन दी जा सकती है।अँगरेज़ी राज में महामना मदन मोहन मालवीय ने पुरज़ोर ढंग से यह मुद्दा उठाया था। तत्कालीन गवर्नर मैकडॉनेल ने इसकी इजाज़त दी थी।


लेकिन कुछ बरस पहले हिंदी और स्थानीय भाषा के प्रयोग की माँग उठाने वालों को इसी शीर्षस्थ कोर्ट ने झटका भी दिया था।एक जनहित याचिका पर उन दिनों मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर ने साफ़ तौर पर स्वीकार किया था कि सर्वोच्च न्यायालय की अधिकृत भाषा अँगरेज़ी ही है।इसके स्थान पर वह हिंदी को लाने अथवा किसी क्षेत्रीय भाषा को स्वीकार करने का निर्देश केंद्र सरकार को नहीं दे सकता।ऐसा करना वास्तव में संविधान के विरुद्ध होगा क्योंकि वह विधायिका को नहीं कह सकता कि अमुक क़ानून बनाए।इस व्यवस्था में कहा गया था कि संविधान की धारा 348 में साफ़ है कि सुप्रीमकोर्ट की भाषा अँगरेज़ी होगी।यदि संसद चाहे तो भाषा बदलने के लिए क़ानून बना सकती है।इसी तरह हाईकोर्ट की भाषा भी अँगरेज़ी ही है। इसमें परिवर्तन करना हो तो राज्यपाल राष्ट्रपति की अनुमति लेकर कर सकते हैं।
भारत में अँगरेज़ी हटाओ आंदोलन लगभग साठ बरस पहले जनसंघ और समाजवादियों ने प्रारंभ किया था।तब से आज तक उनके रवैए में कोई परिवर्तन नहीं आया है। जनसंघ अब नए अवतार भारतीय जनता पार्टी के रूप में सरकार चला रहा है।लेकिन अब यह दल भी अदालतों से अँगरेज़ी हटाने के पक्ष में नहीं है।छह साल पहले केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफ़नामा दायर करके प्रस्ताव खारिज़ कर दिया था कि अदालतों की भाषा हिंदी या क्षेत्रीय भाषा कर दी जाए। ख़ेदजनक तो यह है कि बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और केंद्र सरकार में अनुभव के हिसाब से सबसे अव्वल राजनाथ सिंह औपचारिक तौर पर संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में हिंदी को शामिल करने की माँग कई बार कर चुके हैं ,लेकिन उनकी अपनी पार्टी इस पर क़ानून बनाने को तैयार नहीं है।


मौटे तौर पर इस बात से किसी को भी एतराज़ क्यों होना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय के काम काज की भाषा हिंदी कर दी जाए और दूसरी भाषा के रूप में अँगरेज़ी को बना रहने दिया जाए। इसी प्रकार उच्चन्यायालयों में संबंधित राज्य की अधिकृत प्रादेशिक भाषा को मुख्य भाषा घोषित किया जाए और द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी व अँगरेज़ी को शामिल कर दिया जाए।नई सदी का हिन्दुस्तान यदि अँगरेज़ी का मोह नहीं छोड़ना चाहता तो न छोड़े।साँवले अँगरेज़ उसे सीने से लगाए रहें।पर अपनी भाषा या बोली को दुत्कारने का लाइसेंस किसी के पास नहीं होना चाहिए।क्या सत्ता प्रतिष्ठान इसे कभी समझेंगे ?