किसान आंदोलन में परदेसी दिलचस्पी को अन्यथा क्यों लें

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राजेश बादल


हिंदुस्तान के किसान आंदोलन को मिल रही परदेसी सहानुभूति से समाज का एक वर्ग असहज महसूस कर रहा है।वह आंदोलन की तमाम कड़ियों को जोड़कर अपने मौलिक निष्कर्ष निकाल रहा है।मौजूदा किसान आंदोलन का आग़ाज़ पंजाब से हुआ।बड़ी संख्या में पंजाब से लोग जाकर कनाडा में बसे हैं।कनाडा और पंजाब का रिश्ता दशकों से बंधुत्व भाव का है। ठीक उसी तरह ,जैसा गुजरात के लोगों ने अमेरिका में अपने कारोबार का विस्तार किया है ।यह कोई छिपा तथ्य नहीं है ।
कनाडा की राजनीति में सिखों ने ख़ास पहचान बनाई है । वहां की संसद में उनकी नुमाइंदगी अच्छी मानी जा सकती है ।जब कनाडा में यही भारतीय मूल के लोग मंत्री बनते हैं ,वहाँ की सरकार में शामिल होते हैं तो हम गर्व से भर जाते हैं । जब वे कनाडा से स्वदेश धन भेजते हैं तो हमें अच्छा लगता है लेकिन जब वे भारत सरकार से अपने निर्णय पर पुनर्विचार की माँग करते हैं तो भारत में एक वर्ग उन्हें खालिस्तान आंदोलन से जोड़ता है तो दूसरा आतंकियों से रिश्ता बताता है ।तब यह गर्व बोध अचानक खो जाता है । इसी तरह संयुक्त राष्ट्र भी जब किसानों के साथ झुकता नज़र आता है और ब्रिटिश संसद के छत्तीस सदस्य भी इस मसले पर चिंता का इजहार करते हैं तो भारत में कुछ लोगों को लगता है कि वे अमेरिका या लंदन में बैठकर बाहरी लोग भारत के अंदरूनी मामलों में दख़ल दे रहे हैं । लेकिन क्या यह सच नहीं है कि भारतीय मूल के लोग जब ब्रिटेन की संसद के लिए चुने जाते हैं तो हिन्दुस्तानी गौरव महसूस करते हैं।भारत में तब भी ख़ुशियाँ मनाई जाती हैं ,जब कमला हैरिस अमेरिका की उप राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित होती हैं ,प्रमिला जयपाल और राजा कृष्णमूर्ति चुनाव में विजय हासिल करते हैं या निक्की हेली वहां अपना ज़बरदस्त प्रदर्शन करती हैं । हमें इससे मतलब नहीं होता कि वे ट्रंप की टीम में शामिल हैं अथवा जो बाइडेन के साथ हैं ।हम केवल उनका भारत से रिश्ता देखते हैं । विडंबना यह है कि जब हमारे यही गौरव प्रतीक अपने देश के मसलों पर भागीदारी सुनिश्चित करना चाहते हैं तो हम आंखें तरेरने लगते हैं ।यक़ ब यक़ वे हमें विदेशी दिखाई देने लगते हैं। यह कैसे हो सकता है कि परदेस में बसे हिन्दुस्तानी अपने वतन पैसा भेजें, मुल्क की शान बढ़ाएं तो अच्छा लगे और जब वे सरकार की नीतियों का मूल्यांकन करें तो वे देश के विरोधी या खलनायक मान लिए जाएँ । यह दोहरी मानसिकता किस काम की ? आज के विश्व में हम अपने मुल्क के लोगों से ऐसा व्यवहार तो नहीं कर सकते । मैं इस तथ्य से इनकार नहीं करता कि खालिस्तान आंदोलन को विदेशी मदद मिलती रही है मगर किसान आंदोलन के सिर पर उसका ठीकरा फोड़ना भी जायज़ नहीं है ।

भारत सरकार ने कनाडाई प्रधानमंत्री के बयान पर विरोध दर्ज़ कराया है । कनाडा से हमारे संबंध अच्छे हैं। इन्हीं रिश्तों का नतीज़ा है कि कनाडा ने हिन्दुस्तान का सम्मान बढ़ाने का वह काम किया है ,जो अरसे तक भारत को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से जकड़ कर रखने वाले अँगरेज़ भी नहीं कर पाए।मैं उस प्रसंग को याद करना चाहूँगा। सौ बरस पहले कामागाटामारू जहाज़ पर सवार भारत के स्वतंत्रता सेनानियों, प्रवासियों ,बच्चों ,महिलाओं और बुजुर्गों के साथ कनाडा के तट पर भारी अत्याचार किए गए।जब वे बिलखते भारतीय कोलकाता के तट पर पहुँचे तो गोरी फ़ौज ने उन्हें गोलियों का निशाना बना दिया। किसी तरह बच निकलने में क़ामयाब रहे लोगों से संसार को इस घटना की ख़बर मिली।तबसे वहाँ रह रहे भारतीयों ने कनाडा की सरकार पर उस जल्लादी व्यवहार पर माफ़ी माँगने के लिए लगातार दबाव बनाए रखा। आख़िरकार छह साल पहले कनाडा की संसद और प्रधानमंत्री ने भारत से माफ़ी माँगी।दुनिया में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है,जब किसी देश ने सौ बरस बाद जुल्मों के लिए इस तरह क्षमा याचना की हो।जब कनाडा का माफीनामा हमें अच्छा लग सकता है तो किसान आंदोलन पर उसके परामर्श की निंदा क्योंकर होनी चाहिए । जो राष्ट्र भारत के स्वाधीनता संग्राम के प्रति इतना संवेदनशील हो,उसे इस तरह की चेतावनी कम से कम मेरी नज़र में तो उचित नहीं है ।

भारत का किसान आंदोलन किसान विरोधी कानूनों के ख़िलाफ़ है ।पिछली सरकारों ने भी अनेक अवसरों पर जन आंदोलनों का सम्मान किया है।यह देश को बताने की आवश्यकता नहीं है कि लोकतंत्र में नागरिक सरकार को अपने हित में क़ानून बनाने के लिए चुनते हैं न कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के लिए।जब निर्वाचित हुक़ूमत अपने को मतदाता से ऊपर समझने लगती है ,तो वह अपने घमंड को दर्शाती है ,सेवाभाव नहीं।किसान आंदोलन अनंत काल तक नहीं चलेगा। एक न एक दिन इसे समाप्त होना ही है।अगर मतदाता इसमें जीतते हैं तो इसमें उनकी ही नहीं सरकार की भी विजय है। किसान आंदोलन तो कई बार हुए हैं लेकिन पहली बार अन्नदाता अपने लिए इस तरह कुछ माँग रहा है।एक ग़ैर कांग्रेसी सरकार के लिए यह इतिहास रचने का अवसर है। इसे गँवाना उचित नहीं होगा। दूसरी ओर यदि किसान आंदोलन में हारते हैं और सरकार जीतती है तो उसकी जीत में भी हार है। इसलिए सरकार के पास दो स्थितियाँ हैं। किसानों से हारकर भी जीतने का मौका और किसानों से जीत में तो उसकी पराजय की इबारत लिखी ही है। अब उसे तय करना है कि नौ दिसंबर को वह क्या करे ?