वंशवाद का अपराध बोध सभी दलों में क्यों

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राजेश बादल

संसार की सबसे पुरानी पार्टियों में से एक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष पद एक बार फिर सुर्ख़ियों में है ।मुल्क में लोकतंत्र के कुछ पैरोकारों को गांधी परिवार से कोई व्यक्ति कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं पोसाता ।वे इस चिंता में दुर्बल हो रहे हैं कि यह दल बाहर से कोई मुखिया क्यों नहीं खोज रहा है ? उनकी चिंता है कि सदियों तक राजशाही के बोझ तले दबा रहा देश इक्कीसवीं शताब्दी में भी राजपरिवार की तर्ज़ पर उत्तराधिकारी क्यों चुने । एक तरह से यह वाजिब तर्क लगता है ।मगर विनम्र निवेदन है कि इस तरह की नैतिक अपेक्षा बार बार एक ही पार्टी से क्यों की जाती है ? इस भारतीय को कांग्रेस के विरोध में खड़े दलों के भीतर उफनते वंशवाद का विकराल रूप नहीं दिखाई देता । वे भारतीय जनता पार्टी में नेताओं की तीसरी चौथी पीढ़ी को लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा मान लेते हैं,लेकिन जब यही दृश्य कांग्रेस में प्रकट होता है तो उनका ख़ून खौलने लगता है ।

इसका उत्तर मैं अपने नज़रिए से देना चाहूंगा । आज़ाद होने के बाद एक भारतीय के अवचेतन में महाराजा, बादशाह या गोरी हुकूमत की गुलामी का भय अभी तक नहीं निकला है । उसे आशंका बनी रहती है कि कहीं यह उत्तराधिकार परंपरा जम्हूरियत का जनाजा न निकाल दे । ऐसे में यदि किसी खानदान को बार बार मौका मिलता रहा तो उसे अधिनायकवादी संस्थान में बदलते देर नहीं लगेगी । विडंबना है कि भारत के इस आम आदमी को अन्य दलों में इस तरह की बीमारी नज़र नहीं आती ।अगर वहां राजा का बेटा राजा हो तो उसके सात ख़ून माफ़ हो जाते हैं ।लेकिन यही परंपरा गांधी परिवार में विकसित हो तो उन्हें सिरदर्द होने लगता है ।

राष्ट्रीय,प्रादेशिक और क्षेत्रीय दलों की बात करते हैं ।समाजवादी पार्टी अपनी स्थापना की सिल्वर जुबली मना चुकी है । क्या किसी को याद है कि इसके जनक मुलायम सिंह यादव ने पार्टी की अध्यक्षी परिवार के बाहर जाने दी है । इस दल में वंश के अलावा केवल यादववाद चलता है । लोकतंत्र की किस पाठशाला में इस तरह का अध्याय पढ़ाया जाता है ? यह तो संविधान की भावना के अनुसार भी नहीं माना जा सकता । इसी तरह बहुजन समाज पार्टी का मामला है । यह दल भी साढ़े तीन दशक पूरे कर चुका है । जब तक कांशीराम जीवित रहे ,वे ही पार्टी की कमान संभाले रहे । उनके बाद मायावती पार्टी की मुखिया बनी । तबसे आजतक कोई अन्य उस कुर्सी की ओर ताक भी नहीं सकता । सच है कि मायावती ने विवाह नहीं किया और उनकी कोई संतान नहीं है ,लेकिन जब तक वे पद को सुशोभित कर रही हैं, तो नंबर दो के स्थान पर कौन है – कोई नहीं जानता । निष्ठावान कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के साथ यह गणतांत्रिक व्यवहार तो निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता ।उत्तर प्रदेश के पड़ोसी राज्य बिहार में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की समाजवादी उपज लालू यादव भी परिवार को बढ़ावा देकर कौन सा समाजवाद का रहे हैं ,समझ से परे है ।पत्नी और बेटे के बीच में बिहार झूलता रहा है ।

बिहार से अलग हुए झारखंड गुरुजी शिबू सोरेन के संघर्ष की देन है ।लेकिन आज उनका झारखंड मुक्ति मोर्चा भी परिवार ने जकड़ लिया है । पंजाब में अकाली दल पर भी बादल वंश का क़ब्जा है । वहां इस कुनबे से बाहर किसी कार्यकर्ता या नेता का कोई अस्तित्व है क्या ? इसी क्रम में हरियाणा का ज़िक्र भी क्यों छूटे ।वहां की सियासत चौटाला खानदान की पीढ़ियों के इर्द गिर्द सिमटी रही है ।देवीलाल से शुरू हुआ यह सिलसिला अभी जारी है ।

कमोबेश ऐसी ही स्थिति तृणमूल कांग्रेस में है । इस राष्ट्रीय पार्टी में सुश्री ममता बनर्जी भी एकल भूमिका में हैं । स्थापना के बाईस साल के बाद भी इस दल में दूर दूर तक किसी नए राष्ट्रीय अध्यक्ष की संभावना नहीं जगती । आंतरिक लोकतंत्र की बात कौन करे ?
महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना इन दिनों सत्ताधारी दल है । इस दल का सुप्रीमो ठाकरे परिवार का ही सदस्य होता रहा है ।वहां तो इस परिवार से बाहर का कोई नेता सुप्रीमो बनने का सपना भी देख ले तो बवाल खड़ा हो जाएगा ।बाल ठाकरे की विरासत उद्धव ठाकरे ने संभाली ।अब उद्धव के उत्तराधिकारी के रूप में उनके सुपुत्र भी तैयार हैं ।इसी प्रदेश में शिवसेना की सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को देख लीजिए । जन्म के छब्बीस बसंत देख चुकी इस पार्टी में शरद पंवार के अलावा कौन अध्यक्ष बना है । जब भी उत्तराधिकारियों का ज़िक्र आता है, पंवार परिवार के सदस्य का ही नाम लिया जाता है । भले ही सुप्रिया या अजित में मन मुटाव की ख़बरें आती रहें ,लेकिन जब भी पार्टी नए मुखिया के बारे में सोचेगी, वह इसी खानदान से निकल कर आएगा ।
दक्षिण भारत की सियासत देखें तो द्रमुक ( द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम ) में करूणानिधि के परिवार विराट वटवृक्ष की तरह तमिलनाडु की सियासत में फल फूल रहा है।कौन ऐसा राजनेता है जो उस दल पर क़ाबिज़ परिवार से अलग होकर अध्यक्ष बनने का ख़्वाब पाल सकता है। फ़िलहाल तो किसी में यह क्षमता नहीं दिखाई देती।कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा का कुनबा वंश परंपरा का निर्वाह कर रहा है तो आंध्र प्रदेश में वाई एस आर कांग्रेस में जगन रेड्डी परिवार परंपरा की उपज हैं।आम तौर पर सियासी दलों के नाम समूह वाचक या वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले होते हैं। लेकिन जगन की पार्टी तो उनके स्वर्गीय पिता के नाम पर ही बनाई गई है।जब व्यक्ति के नाम पर दल का नाम हो तो वहअपने सूबे में लोकतान्त्रिक धारा कैसे बहा सकता है ? इसी राज्य में एक दौर में लोकप्रिय फ़िल्म अभिनेता नन्द मूरि तारक रामाराव ने तेलुगु देशम का निर्माण किया था। इन दिनों उनके दामाद यह पार्टी चला रहे हैं। जिन लोगों को चंद्र बाबू नायडू के काम काज का अनुभव है ,वे उनके अधिनायक वाले रूप से भली भांति परिचित हैं । कुनबापरस्त पार्टियों की इस गाथा में तमिल मनीला कांग्रेस को नहीं भुला सकते।कभी कांग्रेस में इंदिरा गांधी के कृपापात्र रहे जी के मूपनार ने पार्टी से अलग होकर यह दल गठित किया।दल एक तरह से नाकाम रहा और उनके बेटे जी के वासन ने बाद में कांग्रेस में ही अपने दल का विलय कर दिया।

अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो कोई भी दल कुनबापरस्ती और अपने वंशजों की परवरिश करने से ऊपर उठकर काम करता नज़र नहीं आता। ऐसे में आक्रमण का शिकार अकेले कांग्रेस को क्यों होना चाहिए ? जब सारे कुँए में भांग घुली हो तो उसकी एक अंजुलि से पवित्रता की उम्मीद क्यों कर होनी चाहिए। कांग्रेस को ही यह व्यर्थ का अपराध बोध क्यों पालना चाहिए। क्या यह सच नहीं कि सत्ताधारी दल को चुनौती देने वाला दल सिर्फ़ कांग्रेस है और नेतृत्व के लिए मुश्किल खड़ी करने वाला गांधी परिवार है। कांग्रेस का यह शिखर परिवार कहीं इस सियासी चक्रव्यूह में तो नहीं उलझ गया है ?