शरीर की वसीयत : मर के भी किसी के काम आ सके तो है जिंदगी..

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पंकज शुक्‍ला-
गीतकार शैलेन्‍द्र के लिखे को थोड़ा बदल कर यूं कहना चाहिए- ‘के मर के भी किसी के काम आ गए/ किसी का दिल बन धड़क गए तो दुनिया कहेगी बार-बार/ जीना इसी का नाम है।’ आज जबकि युद्ध की बातें की जा रही हैं, हम सीमा पर जा कर भले ही शहीद न हों मगर पूरा जीवन जी लेने के बाद मर कर किसी के काम आ सकें तो यह भी किसी ‘शहादत’ से कम न होगा। तब भले आप देश के लिए प्राण न्‍योछावर न करेंगे मगर किसी एक व्‍यक्ति, उससे जुड़े परिवार और समाज के लिए तो ‘रत्‍न’ साबित होंगे। देहदान के प्रति इसी चेतना को जगाने के लिए ‘शरीर की विरासत’ अभियान शुरू किया गया है। जन स्‍वास्‍थ्‍य अभियान के डॉ. अजय खरे की स्मृति में मप्र विज्ञान सभा वेबसाइट, यह अभियान इस उम्‍मीद के साथ आरंभ कर रही है कि लोग अपने शरीर की वसीयत करें। मत्‍यु उपरांत अंगदान की शपथ लें और इस वसीयत को सार्वजनिक करें ताकि उनकी इच्‍छा का पालन किया जा सके।
डॉ. खरे की 4 मार्च को पुण्‍यतिथि है और इस दिन से sharirkivasiyat.org वेबसाइट पर देह और अंगदान की घोषणाओं को सार्वजनिक करने का अभियान आरंभ होगा। इस अभियान के सूत्रधार डॉ. मनोहर अगनानी के अनुसार ‘शरीर की वसीयत’ एक नई सोच है जिसे आज के तकनीकी युग में साकार किया जा सकता है। एक सामाजिक आंदोलन का रूप दिया जा सकता हैं। वे बताते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व वे अजीज दोस्त डॉ. अजय खरे के साथ चर्चा कर रहे थे तब डॉ. खरे ने मृत्‍यु उपरांत नेत्रदान की इच्छा व्यक्त की थी। उस दिन उनकी आकस्मिक मुत्यु की आशंका के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। लेकिन एक सड़क दुर्घटना में डॉ. खरे का निधन हो गया। अस्पताल में भाभीजी बिलख रही थीं और डॉ. अगनानी को याद आया कि डॉ. खरे ने नेत्रदान का संकल्प लिया है। दु:ख के माहौल में किसी तरह इस संकल्‍प का जिक्र किया गया तो परिवार तुरंत नेत्रदान के लिए तैयार हो गया। यहां तो परिजन ने डॉ. खरे की इच्‍छा का सम्‍मान किया लेकिन अकसर परिजनों को ऐसे संकल्‍पों का पता नहीं होता और वे मृत्‍यु के शोक में एक नेक काम से वंचित रह जाते हैं।
यह अभियान महत्‍वपूर्ण है क्‍योंकि भारत अंग दान के प्रति सबसे कम रुचि दिखाने वाले देशों में से एक है। हमारे देश में नेत्र, लिवर और हृदय की आवश्यकता के विपरीत बहुत कम अनुपात में अंग उपलब्ध हो पाने से हजारों लोग असमय मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो देश में डेढ़ लाख से अधिक लोगों को किडनी की आवश्‍यकता होती है मगर दानदाताओं की संख्‍या पांच हजार ही है। 50 हजार से अधिक लिवर की जरूरत है मगर केवल 700 लीवर ही उपलब्ध हैं। ऐसे में मृत्‍यु के उपरांत शरीर के स्‍वस्‍थ्‍य अंगों को नष्‍ट न होने दे कर हम कई लोगों को सुखी जिंदगी दे सकते हैं।
दुर्भाग्‍य यह है कि कई लोग नेत्र दान आदि का संकल्‍प लेते जरूर है मगर वे उसे सार्वजनिक नहीं करते और जानकारी के अभाव में मृत्‍यु उपरांत उनकी इच्‍छा का पालन नहीं हो पाता। यह कार्य इसलिए आवश्‍यक है कि ऐसे संकल्‍प सार्वजनिक हों। इसके लिए मप्र विज्ञान सभा की यह वेबसाइट कारगर कदम हो सकती है। यहां आप संकल्‍प पत्र भर उसे सार्वजनिक कर सकते हैं। आखिर, देशभक्ति केवल सीमा पर जा कर ही नहीं दिखाई जाती है। देश निर्माण के कार्य में अपनी भूमिका का ठीक-ठीक निर्वाह करना भी देशभक्ति की परिभाषा में समाहित है। कुछ काम ऐसे हैं जो हम ही कर सकते हैं। जैसे, अपने अंगों का दान कर किसी के जीवन को बचा लेना। ऐसे कार्यों में विलंब नहीं होना चाहिए क्‍योंकि मृत्‍यु के उपरांत देरी से दान किए गए अंग भी बेकार ही हो जाते हैं। मृत्‍यु के बाद के जीवन की तैयारी भी आज से ही करने की आवश्‍यकता है, शरीर की वसीयत कर।