मध्यप्रदेश की सियासत क्या गुल खिलाएगी, कौन सा मुद्दा कहां करेगा चोट, किसको मिलेगा वोट?

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भोपाल। देश का हृदय प्रदेश कहलाने वाले मध्यप्रदेश की सियासत कब क्या गुल खिला दे इसका अंदाजा लगा पाना राजनीतिक विश्लेषकों के लिए भी आसान नहीं होता. छह अंचलों में बंटी इस सूबे की सियासत में जिस अंचल को जिस पार्टी का खैरख़्वाह माना जाता है कई बार वही अंचल उस पार्टी को धोखा दे जाता है. विंध्य, बुंदेलखंड हो या ग्वालियर-चंबल, महाकौशल, मध्यभारत हो या मालवा-निमाड़ हर अंचल के अपने सियासी समीकरण हैं और अपना जातिगत आधार.
Will the state of Madhya Pradesh feed its neck, which issue will hurt, who will get votes?
मध्य भारत
39 सीटों वाले मध्यभारत को अगर सूबे की वर्तमान राजनीति का केंद्र कहा जाए तो ये अतिश्योक्ति नहीं होगी. राजधानी भोपाल, रायसेन, विदिशा जैसे सियासी तौर पर महत्वपूर्ण जिले इस अंचल में आते हैं. सूबे के मुखिया शिवराज सिंह भी इसी अंचल का प्रतिनिधित्व करते हैं. इसके साथ ही इस अंचल से प्रदेश के आधा दर्जन से ज्यादा कद्दावर मंत्री संबंध रखते हैं. केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी इसी अंचल का प्रतिनिधित्व करती हैं. मध्य भारत की समस्याओं की बात करें तो शहरी क्षेत्रों वाले इस अंचल में गर्मी के मौसम में पीने के पानी की समस्या आम है. नर्मदा की सफाई और रेत खनन ऐसे मुद्दे हैं जो हमेशा चर्चा में रहते हैं, लेकिन इस गंभीर मुद्दे को चर्चा से ज्यादा अहमियत कभी नहीं मिल सकी. फिलहाल दिग्विजय सिंह और शिवराज सिंह का प्रभाव क्षेत्र माने जाने वाले इस अंचल में बीजेपी के पास 39 में से 29 सीटें हैं, लेकिन 2018 के संग्राम में यहां सत्ता विरोधी लहर का असर देखा जा सकता है, जो बीजेपी के लिए परेशानी खड़ी करेगा.

ग्वालियर-चंबल
ग्वालियर-चंबल प्रदेश का ऐसा अंचल है जहां से उठी सियासी आग पूरे प्रदेश को जला रही है. 2 अप्रैल को एससी आंदोलन के बाद से ये अंचल अनसूचित वर्ग और सामन्य वर्ग की राजनीति का अखाड़ा बन गया है. सिंधिया राजघराने और दिग्विजय सिंह के प्रभाव वाले इस अंचल में किसान, गरीबी, पलायन, पिछड़ापन जैसे मुद्दे एट्रोसिटी एक्ट की लड़ाई में दब चुके हैं. यही वजह है कि सवर्णों का संगठन सपाक्स इस अंचल से बीजेपी-कांग्रेस को चुनौती दे रहा है तो वहीं कंप्यूटर बाबा भी यहां सियासी धुनी रमाये हुए हैं. अगर 2013 के विधानसभा चुनाव की बात की जाए तो इस अंचल की 34 सीटों में से 22 पर कमल खिला था जबकि कांग्रेस को महज 12 सीटें मिल सकी थीं, लेकिन जानकार मानते हैं कि इस बार कांग्रेस यहां पहले से बेहतर स्थिति में रह सकती है.

मालवा-निमाड़
प्रदेश की 230 सीटों में से 66 सीटें अकेले मालवा-निमाड़ अंचल के हिस्से आती हैं. मालवा-निमाड़ यानी इंदौर, उज्जैन, देवास, और खंडवा, खरगोन. यूं तो मालवा को प्रदेश का औद्योगिक गढ़ कहा जाता है, लेकिन मंदसौर गोलीकांड के बाद से मालवा की पहचान किसानों और उनके मुद्दों के लिए होती है. तब से लेकर अब तक उपज की सही कीमत न मिलने का किसानों का मुद्दा सियासी फिजा में तैर रहा है, जिसे कम करने की कोशिशों में सरकार की ओर से बिजली बिल माफ करने की लॉलीपॉप भी दी गई. हालांकि किसानों के इस मुद्दे पर कांग्रेस भी अब उस तरह से मुखर नहीं दिख रही, जिस तरह से चुनाव की घोषणा होने से पहले दिख रही थी. इसके साथ ही इसी साल जून में मंदसौर रेप कांड के चलते उठा कानून व्यवस्था का मुद्दा और क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या भी ऐसे मुद्दे हैं जिनके जवाब यहां की जनता आम लोगों से मांग रही है.

विंध्य
विंध्याचल पर्वतमाला से घिरे मध्यप्रदेश के इस अंचल की राजनीति को समझ पाना भी पर्वतों की तरह ही दुर्गम है. कभी अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी का गढ़ कहे जाने वाले विंध्य की 31 विधानसभा सीटों में से 2013 के चुनाव में कांग्रेस ने महज 12 सीटें ही जीत पाईं. अंचल की 16 सीटें बीजेपी के पास हैं जबकि तीन सीटों पर बीएसपी ने फतेह हासिल की. बेरोजगारी, पानी, पलायन और जातिवाद ये वो मुद्दे हैं जिनसे विंध्य की जनता जूझती है. रोजगार की समस्या को खत्म करने के लिये खनिज संपदा से भरे इस अंचल में सीमेंट फैक्ट्रियां खोली गई, लेकिन इन फैक्ट्रियों से लोगों को रोजगार से ज्यादा बीमारियां हासिल हुईं. ऐसे मामले भी सामने आए जब फैक्ट्री मालिकों की मनमानी से रहवासी इलाकों के मकानों में दरार तक पड़ गईं. इसके साथ ही ऊजार्धानी (प्रदेश की ऊर्जा राजधानी) कहलाने वाले विंध्य के सिंगरौली में ये हाल है कि यहां के कई गांवों में लोगों को महज चार घंटे बिजली नसीब होती है. बहरहाल 2018 के विधानसभा चुनाव के लिए विंध्य में कांग्रेस की नैया के खेवनहार नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह हैं तो बीजेपी के पास बड़े चेहरे के रूप में उद्योग मंत्री राजेंद्र शुक्ल हैं. जबकि एट्रोसिटी एक्ट से उठी आग बिना किसी बड़े चेहरे के भी बीएसपी को कमजोर नहीं होने देगी.

महाकौशल
प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा अचंल महाकौशल है, इस जोन में प्रदेश की 38 सीटें आती हैं, पिछले चुनाव में बीजेपी को 24 सीटें मिली थीं तो 13 पर कांग्रेस ने कब्जा जमाया था, जबकि एक सीट निर्दलीय के खाते में गई थी, इस बार दोनों पार्टियां महाकौशल में कौशल दिखाने की कोशिश में जुटी हैं क्योंकि दोनों ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष इसी जोन से हैं. महाकौशल भले विकास के नक्शे पर पिछड़ा हो, लेकिन प्रदेश की सरकारें बनाने और गिराने में इस अंचल का कोई जोड़ नहीं है. यह जोन भी प्रदेश की जीवनधारा कही जाने वाली नर्मदा नदी से घिरा हुआ है. यहां ब्राह्मण, ठाकुर के बाद आदिवासी वोटर ही निर्णायक भूमिका में रहते हैं. जबलपुर और मंडला प्रमुख केंद्र हैं, पलायन-बेरोजगारी यहां का सबसे बड़ा मुद्दा है.
बुंदेलखंड
सूखा, गरीबी, भुखमरी, पलायन के लिए चर्चित बुंदेलखंड की धरती प्यास से व्याकुल है. पानी यहां की सबसे बड़ी समस्या है. गर्मियों में लोग कई-कई मील केवल पानी की तलाश में भटकते रहते हैं. सागर, टीकमगढ़, पन्ना, छतरपुर, निवाड़ी, दमोह, दतिया की 32 सीटों में से पिछले चुनाव में 23 सीटों पर कमल खिला था तो वहीं कांग्रेस को 8 सीटें मिली थीं, जबकि बसपा ने एक सीट पर कब्जा जमाया था. तमाम समस्याओं के बावजूद यहां का चुनाव जातिगत समीकरणों पर ही लड़ा जाता है. इस जोन में ओबीसी और क्षत्रिय जातियों का प्रभाव है. खासकर लोधी वोट बैंक यहां निर्णायक भूमिका निभाने वाला माना जाता है. इसके साथ ही ब्राह्मण, बनिया और अनुसूचित जाति भी कुछ विधानसभा सीटों पर असर डालती हैं.