राघवेंद्र सिंह
मध्यप्रदेश में 28 विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव भाजपा और कांग्रेस के लिए आम चुनाव से भी ज्यादा भारी हैं। इनके नतीजे राज्य सरकार की किस्मत का फैसला तो करेंगे साथ ही चुनाव की कमान संभालने वाले लीडरों का भविष्य भी तय करेंगे। इनमें कांग्रेस से बगावत कर भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया सबसे ज्यादा होंगे। हालात देखकर लगता है सिंधिया अपने सियासी जिंदगी के सबसे कठिन दौर में हैं। उपचुनाव में भाजपा जीती तो उसका श्रेय लेने वाले कई नेता होंगे लेकिन कुछ गड़बड़ हुई तो अपयश सबसे ज्यादा सिंधिया के खाते में जाएगा। वैसे भी कॉन्ग्रेस के नेता और कार्यकर्ताओं से लेकर के समर्थकों के निशाने पर सिंधिया ही है। ऊपर से भाजपा संगठन और उसके जमीनी कार्यकर्ताओं में अपनी स्वीकार्यता बनाना भी सिंधिया के लिए बड़ी चुनौती है। अभी तक जो खबरें आ रही हैं उस हिसाब से मामला गंभीर है और जनता कार्यकर्ता के साथ प्रदेश के नेताओं से सम्मान का समन्वय बनाना सिंधिया के लिए मुश्किल भरा काम है।
प्रदेश के उपचुनाव की जो चुनौतियां हैं उसे लेकर एक वाक्य में कुछ कहा जाए तो ज्योतिरादित्य सिंधिया कार्यकर्ता, जनता और उसके नेताओं के बीच सैंडविच बन गए है। असल में भाजपा कार्यकर्ता सिंधिया की दादी राजमाता विजय राजे सिंधिया को जिसे चाहता था काफी हद तक कांग्रेस में रहने के बाद भी माधवराव सिंधिया का सम्मान करता है लेकिन सिंधिया परिवार की तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर प्यार मान सम्मान का वैसा भाव नहीं है जो उनके पिताश्री राजमाता को हासिल था। हमने “न काहू से बैर” के पिछले अंक में लिखा था कि उम्मीदवारों के कर्मों के हिसाब से उपचुनाव के नतीजे आएंगे। कमलनाथ सरकार में 15 महीने जाते हुए जैसा कामकाज किया था उपचुनाव के परिणाम उसी का रिपोर्ट कार्ड होंगे। आम शब्दावली में कह सकते हैं कि प्रत्याशियों को उनके आचरण का फल मिलेगा और उससे पार्टियों का मुंह मीठा होगा या कड़वा हुआ तो फिर थू थू करेंगी। क्योंकि अच्छी बातें तो बुरे लोग भी करते हैं आमतौर से आदमी अपने कर्मों से ही पहचाना जाता है।
कर्म तो उम्मीदवारों के होंगे और भुगतेंगे उनके नेता और पार्टियां। इस मामले में सबसे ज्यादा निशाने पर रहेंगे सिंधिया। असल में सिंधिया को भाजपा हाईकमान ने तो स्वीकार कर लिया है लेकिन राज्य में उनकी वजह से सरकार बनने के बावजूद प्रदेश भाजपा और चुनाव क्षेत्र के कार्यकर्ता स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है सिंधिया का अंदाज़ ए महाराजा। मिसाल के तौर पर ग्वालियर का ही लें वहां किले पर रोप वे निर्माण का विवाद है जिसे सिंधिया चाहे तो बड़े आराम से सुलझा कर वहां के भाजपा नेता जनता का एक बार फिर जीत सकते हैं लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। शायद ऐसे हालात में स्वर्गीय माधवराव सिंधिया या राजमाता सिंधिया होती तो पूरा मामला बड़ी आसानी से चला जाता। ग्वालियर सांसद और भाजपा परिवार के खांटी नेताओं में शामिल विवेक नारायण कृष्ण शेजवलकर पहले से तय रोप वे का हर हाल में निर्माण चाहते हैं इसके विपरीत ज्योति राजे सिंधिया इसके खिलाफ हैं। भाजपा में आने के बाद कोई मसला शहर के साथ भाजपा परिवार का है सिंधिया चाहते तो विवेक शेजवलकर को महल में बुलाकर चर्चा के जरिए इस विवाद को सुलझा लेते लेकिन ऐसा हो ना सका। सिंधिया ने राज्य सरकार में उच्च स्तर पर बात कर रोप वे का निर्माण रुकवा दिया। शहर की सुंदरता से जुड़े रोप वे तो रुक गया मगर नेता कार्यकर्ता और दिल टूट गया इसी को कहते हैं बचपना।
भाजपा उनकी दादी द्वारा बनाई गई पार्टी है अगर वे बड़ा दिल करेंगे भाजपा कार्यकर्ताओं ने सिर माथे बैठाएगा। लेकिन ग्वालियर की पहली परीक्षा में ज्योतिरादित्य जी को नंबर कम मिले हैं। बस समझ लीजिए यही कहानी थोड़ी बहुत कम ज्यादा करके 28 उपचुनाव में सिंधिया और भाजपा के साथ दोहराई जाने वाली है। भाजपा कार्यकर्ता समान का भूखा है और सिंधिया ने उन्हें मान दिया लीजिए पार्टी में आगे का रास्ता आसान है। देर से सही सिंधिया को यह बात समझ में तो आएगी लेकिन जितनी जल्दी समझ में आए उतना भाजपा और उनके लिए सुखद होगा। अभी चुनाव का वक्त है इसलिए सिंधिया के अंदाज ए महाराजा स्वभाव को लेकर असंतोष उजागर नहीं हो रहा है लेकिन सरकार मंत्री और संगठन में आगे पीछे उनके स्वभाव को लेकर बातें बनेंगी सड़क पर उनकी चर्चा अभी होगी। इस से उपचुनाव के मुझे भी जबरदस्त तरीके से साबित होंगे।
कांग्रेसी तो कहते सिंधिया को संभालना नही आसान…
ज्योतिराज सिंधिया के बारे में कांग्रेस के नेता कहते हैं कि महाराज को संभालना आसान नहीं है। उनके साथ समन्वय करना टेढ़ी खीर है। उनका मानना है कॉन्ग्रेस की मुसीबत भाजपा में चली गई है । देखते हैं भाजपा नेता महाराज को कैसे हैंडल करते हैं। स्वर्गीय माधवराव सिंधिया की तुलना में ज्योति राजे सिंधिया काफी कड़क है। कांग्रेस छोड़ने के बाद सिंधिया के पास ज्यादा विकल्प नहीं है या तो वे अपने हिसाब से मधु को बदल लें या फिर खुद भाजपा के हिसाब से हो जाएं। बात तो सही है मगर इसमें वक्त लगेगा।
इधर प्रदेश भाजपा के नेताओं का मानना है कि कई मामलों में केंद्रीय नेतृत्व गलत फैसले करता है और कीमत भाजपा को चुकानी पड़ती है। अभी तो चुनाव में जो माहौल है पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की सभाओं में जो भीड़ आ रही है उसे देख कांग्रेस में खुशी और भाजपा में इंटर व्याप्त है। हालांकि मतदान के आते आते समय लंबा है चुनाव में काफी उतार-चढ़ाव कब मिलेंगे।
एक बात तो तय है कांग्रेस और भाजपा चुनाव जीतने के लिए कोई कसर नही छोड़ेंगे। सबको पता है हारे तो फिर खत्म। लेकिन भाजपा को बने रहने के लिए 9 सीट चाहिए कांग्रेस को सरकार में वापसी करने के लिए कम से कम 26 सीटों की दरकार है। क्रिकेट की तरह राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है। इसलिए हां मैं सब दम साध कर काम कर रहे हैं।सारी बात समझने के लिए इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि भाजपा कांग्रेस सपा बस्ता या निर्दलीय सब चाहते हैं तो बने लेकिन जिसकी भी हो उसे आसानी से बहुमत ना मिले क्योंकि सरकार संकट में होगी तभी तो होने रसमलाई मिलेगी इससे अंदाज लग सकता है कि लोगों की भावनाएं क्या है इसलिए चुनाव बहुत दिलचस्प होंगे और उसके बाद के हालात और भी मजेदार होंगे…