सियासत में ग़लत फैसलों की भरपाई नहीं होती

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राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार

सियासत की भी अपनी मनोवैज्ञानिक समझ होती है।यह कला प्रत्येक राजनेता को यूं ही हासिल नहीं होती।वर्षों की कठिन साधना के बाद ही यह हुनर प्राप्त होता है। लाखों में कोई एकाध विरला ही होता है ,जो वक़्त की चाल समझ पाता है। चोटी पर बैठे लीडरों के लिए तो यह और भी कठिन है। ऐसे शिखर पुरुष अपने निर्णयों को हमेशा सही मानते रहते हैं ।सियासत के सफ़र में उन्हें कई फ़ैसले लेने पड़ते हैं। लेकिन उनमें से कोई एक कब हानिकारक हो जाता है, इसका पता ही नहीं चलता।इनमें कुछ तो उसके अपने हित साधने के लिए भी होते हैं।कभी कभी उसका अहसास राजनेता को हो जाता है।पर,उसके दंभ या अहं के कारण वे बने रहते हैं।कुछ निर्णयों से हो रही क्षति की भरपाई के लिए वह कुछ क़दम उठाता है,लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।इस मामले में उसकी अपनी ग़लती तो होती ही है,सरकार में बैठे उसके सहयोगी और नौकरशाह भी सच से उसका संवाद नहीं कराते। वे सोचते हैं कि किसी फ़ैसले में दोष निकालने से उनकी कुर्सी या करियर ही कहीं दाँव पर न लग जाए।मौजूदा कालखंड इस मायने में रीढ़विहीन कहा जा सकता है। हाल ही में पेट्रोल-डीज़ल के दामों में कटौती का निर्णय कुछ ऐसा ही है।

यह फ़ैसला लेने में सरकार से विलंब हुआ। लेकिन जिस तरह से लगातार क़ीमतें बढ़ाई गईं,उनके पीछे कोई ठोस आधार नहीं था।अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में जब कच्चे तेल के मूल्य गिर रहे थे,तब भी भारत में डीज़ल पेट्रोल के मूल्य आसमान छू रहे थे।एक तरफ केंद्र सरकार दावा कर रही थी कि आर्थिक रफ़्तार कुलांचें भर रही है,तो दूसरी ओर डायन मँहगाई ने अवाम का जीना मुहाल कर दिया था।यदि देश संकट में होता,जंग हो रही होती,कोई दैवीय आपदा आई होती तो लगातार क़ीमतें बढ़ाने का वाज़िब कारण समझ में आता।कोरोना के असाधारण आक्रमण काल को छोड़ दें तो लगातार मूल्यों में इज़ाफ़े की वजह समझ से परे है ।विडंबना यह है कि डीज़ल -पेट्रोल के दाम बढ़ने से रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उपभोक्ता वस्तुओं के दाम भी लोगों को रुलाते
हैं।दूध,सब्ज़ी,किराना,यातायात, किराया,बिजली,पानी, स्वास्थ्य सेवाएँ,आवास और औद्योगिक उत्पादन सब मँहगा हो जाता है।इस हिसाब से व्यवस्था-नियंताओं से बड़ी चूक हुई है।एक ज़माने में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अन्न संकट के मद्देनज़र हिन्दुस्तान से प्रार्थना की थी कि वह एक समय ही भोजन करे तो करोड़ों लोगों ने एक जून का खाना छोड़ दिया था।विकट हालात में जनता भी सरकार को सहयोग करती है। कमोबेश ऐसा ही कुछ किसान आंदोलन के बारे में है।अफ़सोस यह है कि लीडरान अपनी राजनीतिक पारी में ढेरों अनुचित और अनैतिक निर्णय लेते हैं मगर किसी अहं या छिपे हित के चलते सही फ़ैसले को ताक में रख देते हैं।किसानों का आंदोलन इसी ज़िद का शिकार हुआ है।सरकार समझने को तैयार नहीं है कि वह जिस डाल पर बैठी है,उसी को काटने पर उतारू है।वक़्त गुजरने के बाद ग़लती दुरुस्त करने का लाभ नहीं मिलता।जनता सब समझती है।पर बोलती नहीं।उसके बोलने का वक़्त मुक़र्रर है।

उसी समय वह न्यायाधीश की भूमिका निभाती है। आज़ादी के बाद इतिहास में ऐसे अनेक साक्ष्य मौजूद हैं।प्रधानमंत्री इंदिरागांधी ने आपातकाल लगाया।उस दरम्यान मँहगाई क़ाबू में आ गई थी,भ्रष्टाचार पर लगाम लगी थी।सरकारी कार्यालयों में बिना घूस काम होने लगे थे ।हम लोगों ने पत्रकारिता दायित्व निभाते हुए यह दौर देखा है।विनोबाभावे जैसे संत ने यदि उसे अनुशासन पर्व कहा तो उसके पीछे यही कारण थे।इसके बाद भी आपातकाल के निर्णय का नुक़सान इंदिरा गाँधी को उठाना पड़ा ।उस समय उनके सलाहकार तथा नौकरशाह रिपोर्ट देते रहे कि कि वे चुनाव जीत रही हैं।हालाँकि ख़ुद इंदिरा गाँधी को अंदेशा था कि उनसे बड़ी भूल हुई है।इसलिए उन्होंने भरपाई के लिए आम जनता से माफी भी माँगी थी और कुछ निर्णयों को ठीक करने का प्रयास किया था लेकिन तब तक काफी समय निकल चुका था।उन्होंने18 जनवरी1977 को राष्ट्र के नाम सन्देश में इशारा भी किया था।वे उस दिन सफाई देने की मुद्रा में थी।

पर अवाम ने 1977 के चुनाव में उन्हें सत्ता छोड़ने का आदेश दिया और इंदिरा गांधी के सारे अच्छे काम भुला दिए ।इस पराक्रमी नेत्री को पटखनी देते समय मुल्क़ को याद नहीं रहा कि उस महिला ने देश को अनाज संकट से उबार कर हरित क्रांति की थी। देश में श्वेत क्रांति की थी और दूध उत्पादन में रिकॉर्ड क़ायम किया था,हिन्दुस्तान को परमाणु शक्ति बनाया था और अंतरिक्ष में किसी भारतीय ने अपने क़दम उनके कार्यकाल में ही रखे थे। यही नहीं,बांग्लादेश को आज़ाद कराकर भारत को एक सीमा से स्थाई ख़तरे से मुक्ति दिलाई थी और सिक्किम नामक देश को भारत में शामिल करके अपना राज्य बनाया था , जो चीन पर करारा तमाचा था।पंजाब में आतंकवाद का करीब करीब ख़ात्मा उनके ज़माने में ही हो गया था।वास्तव में भारत  महाशक्ति के रूप में विश्व मंच पर अवतरित हुआ तो इंदिरा गाँधी का योगदान भुलाया नहीं जा सकता।मगर भारतीय मतदाता ने उन्हें उस अपराध के लिए दण्डित किया,जिससे उसका अपना जीवन आसान बना था।एक ख़राब फ़ैसला बहुत से अच्छे कार्यों पर पानी फेर देता है। इसे समझने के लिए इंदिरा गांधी से बेहतर कोई अन्य उदाहरण नहीं हो सकता। जिस तरह इंसान अपनी ज़िंदगी में कोई अवसर खोकर दोबारा नहीं पाता ,उसी तरह सियासत में भी अवसर निकल जाने के बाद हितकारी और कल्याणकारी निर्णय कोई काम नहीं आते।