मिलिंद कुलकर्णी, पत्रकार, भोपाल- प्रिय पुष्पेंद्र (जी), तुम चले गए और तुम्हारे पीछे उठी पत्रकारिता की गर्द और गुबार से कई सवाल एक बार फिर बिरादरी के सामने आ खड़े हुए। ऐसे ही सवाल तब भी उठे थे, जब हमारे मित्र राजेश भाई (दुबे) ने इस फानी दुनिया को अलविदा कहा था। मुझे मालूम नहीं है कि उस परिवार के लिए कितना कुछ हो पाया और आज वे कैसे हैं ?
मुझे याद है, तुमसे मेरी पहली मुलाकात चंदा भाई (बारगल) ने ’माया’ के दफ्तर में कराई थी। बाद में तुम भास्कर की नौकरी में साथ आए और फिर मिले टिन शेड के पास सरकारी घर में। यानी उसी मोहल्ले में जहां मैं पहले से था। रात में अखबार का काम खत्म होने के बाद हमने पेशे की दुश्वारियों और कश्मकश को अक्सर आपस में साझा किया। मुझे मालूम नहीं कि तुम गुजरात के सोलंकी ठाकुर थे या नहीं लेकिन मजाक के लिए मैं तुम्हें कई बार ‘दरबार’ कह कर बुलाता और तुम मुझे ‘दादा’ और ‘ भाऊ’ के आत्मीय संबोधन से पुकारते।
तुम नास्तिक थे और मैं आस्तिक, बावजूद इसके तुम मेरे आग्रह पर मेरे घर प्रसाद के लिए आ जाते। वैचारिक धाराएं अलग-अलग होने के बावजूद हमने उन बातों पर ध्यान दिया, जो हम दोनों को पसंद थीं। वैचारिक सामंजस्य और मित्रता के पौधे को सींचा। मेधाताई पाटकर के आंदोलन के बाद हम-तुम और करीब आए। तुम्हारी सादगी और मस्त-मौला मिजाज मुझे अच्छा लगता। तब भी तुम फक्कड़ पत्रकार की तरह जी रहे थे और आखिरी दिन तक वैसे ही रहे। अपनी जिंदगी के लिए तुम्हारी बेफिक्री मुझे कभी नहीं भाई। तुम्हारी पत्रकारिता सधी-सधाई थी, जो नब्बे के दशक में बैतूल में फैले मलेरिया और भुज में आए भूकंप की रिपोर्टिंग से समाज और प्रशासन में दमकने लगी। हमने कुछ साल भास्कर में साथ बिताए। तुम कभी भी किसी पत्रकार को प्रतियोगी महसूस नहीं हुए। ताजिंदगी अपने काम से ताल्लुक रखने वाले पत्रकार बने रहे। बाद में सन् २००० के आसपास तुम भास्कर वेबसाइट से सांध्य प्रकाश चले गए, क्योंकि तुमने माना कि अखबार की पत्रकारिता का आनंद और संतोष कहीं और नहीं है। बतौर संपादक सांध्य प्रकाश पहुंचने के बाद मेरा तुम्हारा मिलना-जुलना भी कम हो गया।
मुझे याद है कि एक बार जब भाभी की तबियत बिगड़ी थी, तब हम उन्हें टैक्सी में लेकर जेपी अस्पताल गए थे। भाभी तब भी बहुत दुबली-पतली और कमजोर थी और उनकी सेहत को लेकर मेरे सवाल पर तुमने कहा था कि उनकी तासीर ही ऐसी है। तब तुम्हारे पास टीवीएस मोपेड थी और मैंने तुमसे कार खरीदने का आग्रह किया था। इस सलाह पर तुमने बाद में अमल भी किया, लेकिन जिंदगी में इतर परिवारिक जरूरतों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। इस बीच तुम्हारी पीने-खाने से खासी दोस्ती हो गई और वह मुझे डराने लगी। आज लिख रहा हूं कि मैं दोपहर के बाद तुमसे जान-बूझ कर नहीं मिलता था, तो बस तुम्हारे इसी शौक की वजह से। न तुम्हें इससे रोक पाया और न समझा पाया कि इस शौक को लगाम से बांधे रखो।
बहरहाल, बाद में मेरी भोपाल से नागपुर रवानगी हो गई।हमारी मिलने-जुलने वाली दोस्ती अब फोन पर जीने लगी थी। औरंगाबाद हो या अकोला-अमरावती, सभी जगह से अपनी गपशप हुई। फोन पर इस बात से मुझे तसल्ली होती कि तुम ठीक हो। दो-तीन साल पहले जब मैं डीबी कॉर्प को नमस्ते कह कर भोपाल लौटा, तो हम दोनों अपने-अपने जीवन संघर्ष में उलझे थे।
फोन पर बातें हुईं, मिलने के वादे हुए पर मुलाकात नहीं ! बहुत कोफ्त हुई। कई बार गुजरा था, माता मंदिर सड़क से। लेकिन शायद ऊपर वाले ने हमारी मुलाकात के पन्ने पर पहले ही लाल स्याही चला दी थी। आज जब फेसबुक पर पढ़ा कि तुम कल रात अाखिरी सफर पर निकल गए, तो दिल-दिमाग कुछ देर के लिए सुन्न-सा हो गया। यह कोई उम्र नहीं थी और तमाम जिम्मेदारियां ! मुझे तो आज पता चला कि भाभी जी को एक बड़ी बीमारी ने घेर रखा है। अब कौन संभालेगा भाभी, माताजी और चिराग को ? इस सवाल ने तब से मेरे अंतर्मन को झंझोड़ रखा है। मुझे मालूम था कि तुम्हें शाम को ले जाया जाएगा। कोई खास जरूरी काम भी नहीं था आज मेरे पास। आ सकता था, लेकिन तुम्हारा चेहरा देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। क्या अब हम सब इसलिए हैं कि अपनों को एक-एक कर यूं बिदा करते रहें ? अब लग रहा है मैंने गलती की। मुझे माफ करना ! हां, एक वादा कर सकता हूं। इतना जरूर करूंगा कि अब चिराग से मिलता रहूंगा, उसकी खबर रखूंगा। अपनी काबिलियत और हैसियत के हिसाब से चिराग की मदद करूंगा।
और आखिर में प्रभु से प्रार्थना कि वे मेरे मित्र को अपने श्रीचरणों में स्थान दें और उसकी आत्मा को चिर शांति प्रदान करें। नमन !