ग्राउंड रिपोर्ट
राग दरबारी पर कुछ लिखना ठीक वैसा ही है जैसा नदी के पानी को अंजुली में उठाकर फिर सोचना कि अरे बहुत सारा पानी तो नीचे रह गया। राग दरबारी हमारे कालेज के दिनों की पसंदीदा किताब रही है। हास्टल के कमरे में चार पांच साथियों के बीच बैठा कोई व्यक्ति यदि कुछ पढते हुये लगातार हंस रहा है तो हम समझ जाते थे कि वो राग दरबारी ही पढ रहा होगा। राग दरबारी कोई भी कहीं भी किसी भी पन्ने से पेज से पढना शुरू कर सकता है और उसे वही आनंद आयेगा। पचास साल पूरे कर चुकी इस कालजयी किताब के तकरीबन साढे तीन सौ पन्नों में हर पेज पर शिवपालगंज के बहाने आजादी के बाद हमारे समाज और गांव में राजनीति के बहाने फैली व्यवस्था की वो गंदगी दिखती है जिससे हम अब मुंह नहीं छिपाते नाक पर रूमाल नहीं रखते तथा मानकर और बचकर चलते हुये कहते हैं कि ये सब तो चलता है। और ऐसे में जब पता चला कि इस चर्चित उपन्यास पर हमारे मित्र महमूद फारूकी और दारैन शाहिदी ने दास्तान गोई तैयार की है तो इंतजार था कि कब वो भोपाल आयें।
भोपाल में दास्तान गोई के शो के ठीक पहले जमकर पानी बरसा मगर इससे शो देखने आने वाले के उत्साह पर ज्यादा असर नहीं पडा। भारत भवन के सभागार की जब बत्तियां बुझने के बाद महमूद और दारैन की एंट्री के साथ जलीं तो सामने की सीढियों पर बैठने की जगह कम बची थी। प्रदेश के सबसे बडे अफसर के लेकर आम गुणी दर्शक भी हाल में मौजूद था। दरअसल दास्तान गोई सालों पुरानी उर्दू और हिन्दी में किस्सा सुनाने की कला है जिसमें सामने बैठा कलाकार अपनी भाषा, अंदाज, अभिनय और रोचक शैली के दम पर कहानी और किस्से सुनाता है। दास्तान गोई के कलाकार का कहन इतना जबरदस्त होता कि सामने बैठा श्रोता मंत्रमुग्ध होकर उस दौर और दुनिया में पहुंच जाता है जिसकी बात की जा रही है। इस खत्म होते फन को महमूद ने फिर से जिंदा करने की बेहतरीन कोशिश की है। वो 2005 से इस काम में लगे हैं और अब तक देश विदेश में अलग अलग किस्से कहानियों पर हजार से ज्यादा शो कर चुके हैं। यह शो करने महमूद और उनके साथी पहली बार भोपाल आये थे। महमूद और दारैन को मैं पहले भी दास्तागोई करते देख चुका हूं मगर वो किस्से जादुई और तिलिस्म के थे जिसमें ये दोनों कलाकार किस्सा सुनाते सुनाते देह में रोमांच और सिहरन पैदा कर देते थे मगर बादशाह बेगम के हुकुमत के किस्से से एकदम अलग है राग दरबारी ऐसे में मेरी लिये ये देखना था कि राग दरबारी को कैसे ये गुणी कलाकार कहां तक कह पाते हैं।
तो साहब सफेद झक्क कुर्ता पायजामा और टोपी में ये दोनों कलाकार घुटने मोड कर जब मसनद के सहारे बैठे तो सबसे पहले उन्होंने राग दरबारी की लोकप्रियता के बारे में ही बताया कि इस उपन्यास के किरदारों के पच्चीस से अधिक टिविटर हैंडल हैं। जिनमें राग दरबारी के अलावा सनीचर उर्फ मंगलदास, प्रिंसिपल साहब, दारोगा जी, वैद्य जी, बेला,रामाधीन और रूप्पन बाबू मिलते हैं। ऐसे में पूरी राग दरबारी को कुछ घंटे में समेटना कठिन काम है। महमूद ने शुरूआत में ही कह दिया कि जिन्होने राग दरबारी पहले सुनी है वे यह कहते नजर आयेंगे कि ये क्यों नहीं सुनाया, वो क्यों छोड दिया, इससे अच्छा तो वो था, और जो पहली बार सुन रहे हैं उन्हें तब तक मजा नहीं आयेगा जब तक वे पूरी न सुन लें । तो मान लीजिये जो हमसे बना हमने सुना दिया और फिर कभी समय मिला तो पुराना सुनायेंगे और वो दास्तान गोई महीनों तक चलती जायेगी। तो दाद देते जाइयेगा वरना हम दिल्ली से आये हैं, दिल ना टूट जाये।
तो दाद तो कलाकारों को हर अंदाज पर मिली क्योंकि राग दरबारी की जहर में बुझी पंक्तियां और उन पर कलाकारों का हिन्दी, उर्दू, फारसी में उनको बयान करना मंत्रमुग्ध कर जाता था हंसाता था और सोचने पर मजबूर भी करता था। दास्तानगोई में राग दरबारी की शुरूआत इस तरीके से होती है कि हाजरीन देश रसातल में जा रहा है, वैघ जी डटे हुये हैं, शिवपालगंज के कालेज से लेकर कोआपरेटिव में सालों से अध्यक्ष बने हुये हुये हैं, ये अलग बात है कि चुनाव पांच सालों से नहीं हुये लेकिन चुनाव से होगा क्या, नया आदमी चुना तो वह भी घटिया ही होगा। और फिर गांव,,, क्या गांव था,,,आम के पेड ,,फिर उस पर बौर,, आमों को ललचाती नजरों से देखती लडकियां और उनको उसी नजर से ललचाते गांव के लडके। अरे बस मगर का ये मंजर वहीं बयां कर सकता है जो पिछले पंद्रह बीस सालों से गांव नहीं गया ही ना हो। असल में सौ डेढ सौ सालों से यही रटाया जा रहा है गांव के बारे में। मगर सबसे ज्यादा तालियां तो तब बजीं जब कहा गया कि नैतिकता की तो बात मत करो, नैतिकता कोने में पडी उस चौकी के समान है जिसे हम गांव में सिर्फ विशेष कामों पर ही झाड पोंछ सफेद कपडा बिछाकर सामने रख लेते हैं।
दोनों कलाकारों ने दास्तान गोई में राग दरबारी के गांव शिवपाल गंज के ढेर सारे किरदारों के बहाने गांव और वहां पनप रही राजनीति को अपने अंदाज में सामने रखा मगर मजा ये था कि गांव की राजनीति और देश की राजनीति में कोई बहुत फर्क नहीं दिखा। मशहूर व्यंग्कार डा ज्ञान चतुर्वेदी कहते हैं कि राग दरबारी इन पचास सालों में पूरे देश में फैल गयी है तभी ये मौजू है। शिवपालगंज की एक मंजिला इमारत अब अपार्टमेंट बन गया है और हमारा देश इसी बुनियाद पर खडा है। और इस बुनियाद को राग दरबारी के बहाने हमने दास्तानगोई में सुना जो कभी नहीं भूलने वाला अनुभव है।
ब्रजेश राजपूत,
एबीपी न्यूज,
भोपाल